संपादकीय

संपादकीय (272)

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ इन दिनों राष्ट्रवाद के साथ ही मठ-मंदिरों के उन्नयन और धार्मिक पर्यटन विकसित करने के साथ ही उदार हिंदुत्व की राह पर कांग्रेस और उसकी सरकार को ले जा रहे हैं। इसका मकसद बहुसंख्यक मतदाताओं के मानस में कांग्रेस के लिए और अधिक जगह बनाना है। ए.के. एंटोनी ने 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार की समीक्षा के बाद सिफारिश की थी कि कांग्रेस को उदार हिंदुत्व की अपनी पुरानी विचारधारा पर आगे बढ़ना होगा ताकि बहुसंख्यक मतदाता भी उससे अपना जुड़ाव महसूस कर सकें। जनसंपर्क और अध्यात्म विभाग के मंत्री पी.सी. शर्मा इन दिनों कमलनाथ सरकार के मठ मंदिरों के उन्नयन और धार्मिक पर्यटन को विकसित करने के प्रयासों को अमलीजामा पहनाने पूरी प्रतिबद्धता से आगे बढ़ रहे हैं। अब कमलनाथ सरकार द्वारा तेजी से राम वन गमन पथ एक धार्मिक पर्यटन के रुप में विकसित किया जायेगा। मध्यप्रदेश के नगरीय विकास एवं आवास मंत्री जयवर्द्धन सिंह ने भी ऐलान किया है कि स्थानीय निकाय संस्थाएं अपने-अपने क्षेत्र में रामलीला मंचन के लिए मंच तैयार करेंगी ताकि इसके मंचन में किसी प्रकार की असुविधा न हो। एक हजार गौशालाओं के निर्माण का फैसला कमलनाथ सरकार काफी पहले ही कर चुकी है। अब कांग्रेस की योजना 16 दिसम्बर को राजधानी भोपाल में विजय पर्व शौर्य स्मारक में मनाने की है। 16 दिसम्बर 1971 को प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भारतीय सेना के सामने पाकिस्तानी सेना ने सरेन्डर किया था, उसी की याद ताजा कराने इस दिन विजय पर्व मनाने की योजना है।
कमलनाथ का मकसद इसके माध्यम से भारतीय जनता पार्टी की घेराबंदी उसके ही एजेंडे पर करने की है और इसके लिए सरकार अपने इस अभियान में तेजी से आगे बढ़ रही है। एंटोनी कमेटी की सिफारिशों के बाद तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने अपने कार्यकाल में प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में गणेश प्रतिमा एवं दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की शुरुआत की थी जो अभी भी जारी है। 2018 के विधानसभा चुनाव के पूर्व तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने अनेक मंदिरों में पूजा अर्चना कर चुनाव अभियान का शुभारंभ किया था। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा की यात्रा पूरे विधि विधान से की थी। इन सबका चुनावों में कांग्रेस को फायदा हुआ और 15 साल बाद कांग्रेस की सत्ता का सूर्योदय हुआ। मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार हिंदुत्व के साथ ही राष्ट्रवाद के मुद्दे को भी उभारने जा रही है और इसके लिए ही शौर्य स्मारक में विजय पर्व मनाने की योजना बनाई है। कांग्रेस पार्टी की इस आयोजन के सम्बन्ध में औपचारिक घोषणा अभी होना शेष है लेकिन इस पर विचार-विमर्श लगभग पूरा हो गया है। 16 दिसम्बर 1971 का दिन भारत के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में उस समय अंकित हो गया था जब पाकिस्तान के दो टुकड़े हुए और पूर्वी पाकिस्तान में आजाद बांग्लादेश का निर्माण हुआ। एक नये राष्ट्र के उदय का पूरा श्रेय श्रीमती इंदिरा गांधी को है और यह ऐसी लड़ाई थी जिसमें पाकिस्तान को बड़ी हार का सामना करना पड़ा था। उस दैरान पूरे देश में इंदिरा गांधी की जय-जयकार हुई थी और विश्‍व पटल पर वे एक सख्त नेता के रुप में उभरी थीं। यहां तक कि तत्कालीन विपक्ष के नेता अटलबिहारी वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को संसद में दुर्गा कहा था। आज की पीढ़ी को इन सब बातों की विस्तार से जानकारी देने के लिए यह आयोजन किया जा रहा है।
1985 में लोकसभा में कमलनाथ ने कहा था कि भारत की आध्यात्मिक विरासत की रक्षा करना विशेष रुप से सरकार का कार्य है, वास्तविक आध्यात्मिक संस्थाओं और इस क्षेत्र में कार्य कर रहे व्यक्तियों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पी.सी.शर्मा का कहना है कि प्रदेश में अध्यात्म विभाग का गठन हमारी सरकार ने किया है। मंदिरों में पूजा अर्चना करने वाले पुजारियों की बेहतरी के लिए नीतियों को नये सिरे से निर्धारित किया और पुजारियों का मानदेय तीन गुना कर दिया गया। सरकार द्वारा मॉ नर्मदा, मॉ क्षिप्रा, मॉ मंदाकिनी एवं मॉ ताप्ती जैसी जीवनदायिनी पवित्र नदियों की सुरक्षा व संरक्षण के लिए नदी न्यास का गठन किया गया है। मंदिर व मठों की व्यवस्थाओं के सुचारु संचालन के लिए मठ-मंदिर सलाहकार समिति का भी गठन किया गया है। विभिन्न मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए राशि प्रदान की गयी है। तीर्थ दर्शन के लिए तीन विशेष ट्रेनें चलाई गयी हैं। शर्मा का कहना है कि प्रदेश की पावन भूमि का आलोकित स्वरुप भगवान श्रीराम के चरण कमल प्रदेश में पड़ते ही साकार हो गया था। कमलनाथ सरकार प्रतिबद्ध है कि प्रदेश के वे पवित्र तीर्थस्थल जैसे सतना, पन्ना, कटनी, उमरिया, शहडोल, अनूपपुर आदि जिले जहां भगवान श्रीराम ने अपने वनवास का समय व्यतीत किया था प्रदेश कांग्रेस सरकार उन स्थलों को वही आलोकित स्वरुप देने के लिए संकल्पित है। चित्रकूट-कामदगिरी, गुप्तगोदावरी, स्फटिक-शिला, अनुसूइया-आश्रम, हनुमान-धारा, दशरथ-गाठ इत्यादि स्थलों को धार्मिक पर्यटन के लिए विकसित किया जाएगा। साथ ही भोपाल में समूचे राम वन गमन पथ की प्रतिकृति भी निर्मित की जाएगी। शहरी मतदाताओं को खुश करने सभी नगरपालिक निगमों, नगरपालिकाओं व निगम परिषदों में रामलीला मंच बनाने का ऐलान करते हुए नगरीय विकास एवं आवास मंत्री जयवर्द्धन सिंह ने कहा है कि अतिक्रमण के चलते अब रामलीला कराने के लिए भी समिति व आयोजकों के पास जमीन नहीं बची है, इन हालातों में राज्य सरकार नगरीय क्षेत्रों में स्थायी व्यवस्था करते हुए रामलीला मंच का निर्माण करेगी। सरकार को जमीन तलाशने खास मेहनत नहीं करनी पड़ेगी क्योंकि दुर्गा उत्सव समितियों के पंडालों का उपयोग भी रामलीला मंचन के लिए किया जा सकता है।
महाकाल की नगरी उज्जैन के महाकालेश्‍वर मंदिर के बाद अब ओंकारेश्‍वर को विकसित करने के लिए 156 करोड़ की कार्ययोजना को मंजूरी प्रदान करते हुए कमलनाथ ने निर्देश दिए हैं कि ओंकारेश्‍वर मंदिर के लिए शीघ्र ही एक विधेयक तैयार किया जाए। ओंकारेश्‍वर कार्ययोजना की समीक्षा के दौरान कमलनाथ ने कहा कि देश में केवल मध्यप्रदेश को यह गौरव हासिल है कि 12 ज्योर्तिलिंगों में से यहां प्रतिष्ठापित हैं। हमारा लक्ष्य है कि ये पवित्र स्थान विश्‍व पर्यटन केन्द्र के रुप में विकसित हों। ओंकारेश्‍वर विकास योजना एक समयबद्ध ढंग से पूरा करने के भी निर्देश दिए गए, निर्देश के साथ ही कहा कि हर विकास कार्य पूरा करने की तारीख तय हो। उन्होंने कहा कि अगले शीतकालीन सत्र में यह विधेयक पेश करने की हमारी मंशा है। उज्जैन के महाकालेश्‍वर मंदिर विकास के लिए 350 करोड़ रूपए के विकास की योजना कमलनाथ पहले ही स्वीकृति दे चुके हैं। ओंकारेश्‍वर विकास की योजना मुख्यमंत्री के निर्देश पर तैयार की गयी है। लोक स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री तुलसीराम सिलावट ने इस योजना को अंतिम रुप दिया। मंत्रालय में यह योजना मुख्यमंत्री के सामने प्रस्तुत की गयी। इसमें विकास का एक विस्तृत विवरण तैयार किया गया है। इसमें ओंकारेश्‍वर के प्रवेश द्वार को भव्य बनाना, मंदिर का संरक्षण, प्रसाद काउंटर, मंदिर के चारों ओर विकास तथा सौंदर्यीकरण, शापिंग काम्पलेक्स, झूलापुल और विषरंजन कुंड के पास रिटेनिंग वॉल, बहुमंजिला पार्किग, पहुंच मार्ग, परिक्रमा पथ का सौंदर्यीकरण, शेड निर्माण, लैं स्केपिंग, धार्मिक पौराणिक गाथा पुस्तकों की लायब्रेरी, ओंकार आइसलैंड का विकास, गौमुख घाट पुन-निर्माण, भक्त निवास और भोजनशाला, ओल्ड पैलेस, विष्णु मंदिर, ब्रम्हा मंदिर, चन्द्रेश्‍वर मंदिर का जीर्णोद्धार, ई-साइकिल तथा ई-रिक्शा सुविधा, बोटिंग, आवागमन, बस स्टैंड, पर्यटक सुविधा केन्द्र सहित अन्य विकास कार्य शामिल हैं।
और यह भी
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार महात्मा गांधी की रामराज्य की संकल्पना पर काम कर रही है। मध्यप्रदेश में आधुनिक गौशालाओं के निर्माण की बात हो, गौसंरक्षण और उपचार की बात हो या फिर प्रभु श्रीराम के राम वन गमन पथ की बात हो, इन सब पर कमलनाथ सरकार ठोस कार्य कर रही है। मठों, मंदिरों और धार्मिक स्थलों को पर्यटन केन्द्र के रुप में विकसित किया जा रहा है। राम वन गमन पथ और गौवंश के संरक्षण का जहां तक सवाल है इन मुद्दों पर शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने खाली बयानबाजी करके अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली है लेकिन कांग्रेस की कमलनाथ सरकार प्रदेश में इन विषयों पर पूरी गंभीरता से काम कर रही है। इसी श्रंखला में प्रदेश के सभी नगरीय निकायों में स्थायी रामलीला मंच का निर्माण होगा और वहां पर बाकायदा रामलीला का मंचन हो यह सुनिश्‍चित किया जायेगा। रामलीला सनातन परम्परा का वास्तविक संदेश समाज को देती है और इसके मंचन से सामाजिक व सांस्कृतिक धरोहर सुरक्षित रहेगी जो अंततोगत्वा समाज सुधार में सहायक होगी।

- लेखक सुबह सवेरे के प्रबंध संपादक हैं।

Source ¦¦ अरुण पटेल जी
गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
  2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला भारत की राजधानी दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को हुई बलात्कार एवम हत्या की घटना रोंगटे खड़े कर दिए थे यह सत्य है कि संचार माध्यम के त्वरित हस्तक्षेप के कारण प्रकाश में आयी वरना यह भी एक सामान्य सा अपराध बनकर फाइलों में दबी होती.

सोशल मीडिया ट्वीटर फेसबुक आदि पर काफी कुछ लिखा गया. इस घटना के विरोध में पूरे नई दिल्ली,  कलकत्ता  और बंगलौर  सहित देश के छोटे-छोटे कस्बों तक में एक निर्णायक लड़ाई सड़कों पर नजर आ रही थी .   बावजूद इसके किसी भी प्रकार का परिवर्तन नजर नहीं आता इसके पीछे के कारण को हम आप सब जानते हैं .
बरसों से देख रहा हूं कि नवंबर से दिसंबर बेहद स्थितियों को सामने रख देते हैं . ठीक 7 साल पहली हुई इस घटना के बाद परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है . हम अगले महीने की 26 तारीख को नए साल में भारतीय गणतंत्र की वर्षगांठ मनाएंगे पता नहीं क्या स्थिति होगी तब मुझे नहीं लगता कि हम तब जबकि महान गणतंत्र होने का दावा कर रहे होंगे तब हां तब ही किसी कोने में कोई निर्भया अथवा प्रियंका रेड्डी का परिवार सुबक रहा होगा तब तक टनों से मोम पिलाया जा चुका होगा . अधिकांश जनता आम दिनों की तरह जिंदगी बसर करने लगे होंगे... हां उनके हृदय में डर अवश्य बैठ चुका होगा . ना तो समाज में और ना ही व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नजर आएगा परंतु परिवर्तन आ सकता है अगर समाज में लोग यह सोचें कि :- हम रेपिस्ट को केवल फांसी के फंदे पर देखना चाहते हैं अगर वह अपना खून है तो भी ..! शायद बदलाव शुरू हो जाएगा, परंतु सब जानते हैं ऐसा संभव नहीं है .
व्यवस्था भी कानूनी व्यवस्थाओं का परिपालन करते-करते बरसों बिता देगी परंतु फांसी के फंदे तक रेपिस्ट नहीं पहुंच पाएंगे आप जानते हैं कि अब तक आजादी के बाद कुल 57 केस में फांसी की सजा हो पाई है . इसका अर्थ है कि कहीं ना कहीं रेपिस्ट न्याय व्यवस्था में लंबे लंबे प्रोसीजर्स के चलते लाभ उठा ही लेते हैं और जिंदा बनी रहते हैं कि वह लोग हैं जिन्हें जीने का हक नहीं है . एक साहित्यकार होने के बावजूद केवल रेप के मामलों में शीघ्र और अंततः फांसी की सजा की मांग क्यों कर रहा हूं..?
जी हां आपके ऐसे सवाल उठ सकते हैं लेकिन पूछना नहीं यह जघन्य अपराध है और इसका अंत फांसी के फंदे से ही होगा यह जितना जल्दी हो उतना समाज को और उन दरिंदों को संदेश देने के लिए काफी है जो रेप को एक सामान्य सा अपराध मानते हैं .
सुधि पाठको , साहित्यकार हूं कभी हूं संवेदनशील हूं इसका यह अर्थ नहीं है कि न्याय के पासंग पर यौन हिंसा को साधारण अपराधों की श्रेणी में रख कर तोलूं . यहां ऐसे अपराधों के लिए केवल मृत्युदंड की अपेक्षा है .
निर्भया कांड के बाद व्यवस्था ने व्यवस्थित व्यवस्था ना करते हुए ... इन अपराधों को स्पेस दिया है यह कहने में मुझे किसी भी तरह का संकोच नहीं हो रहा . हबीबगंज प्लेटफॉर्म पर हुए कांड के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने कुछ नए बदलाव लाने की कोशिश भी की है 50 महिला केंद्रों की स्थापना प्रत्येक जिले में कर दी गई है न्याय के मामले में मध्यप्रदेश की अदालतों में तेजी से काम हुआ है इसकी सराहना तो की जानी चाहिए लेकिन क्या यह पर्याप्त है मुझे लगता है कदापि नहीं आप भी यही सोच रहे होंगे कुछ सुझाव व्यवस्था के लिए परंतु उसके पहले कुछ सुझाव समाज के लिए बहुत जरूरी है अगर आप अभिभावक हैं तो अपनी पुरुष संतान को खुलकर नसीहत देने की पहल आज ही कर दीजिए कि महिलाओं के प्रति बेटियों के प्रति नकारात्मक और हिंसक भाव रखने वाले बच्चों यानी पुरुष संतानों के लिए घर के दरवाजे कभी नहीं खुल सकेंगे .
समाज ऐसा कदम नहीं उठाएगा जीने का सुधरने का एक मौका और चाहेगा परंतु इन्हीं मौकों के कारण महिलाओं का शोषण करने को स्पेस मिलता है जो सर्वदा गैर जरूरी है क्या अभिभावक ऐसा करना चाहेंगे मुझे नहीं लगता जो पुत्र मोह में फंसे हैं ऐसा धृतराष्ट्री समाज कदापि अपनी पुरुष संतान के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाएगा . यह वही समाज है जहां लड़कों के लिए व्रत किए जाते हैं यह वही समाज है जहां कुछ वर्षों पूर्व तक बेटियों के जन्म से उसे उपेक्षित भाव से देखा जाता है इतना ही नहीं बेटी की मां के प्रति नेगेटिविटी का व्यवहार शुरू हो जाना सामान्य बात है .
यह वही समाज है जहां पुत्रवती भव् होने का आशीर्वाद दिया जाता है . समाज से किसी को भी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है . अगर आप मेरी बात को समझ पा रहे हैं तो गौर कीजिए बेटियों के प्रति स्वयं नजरिया पॉजिटिव करिए तो निश्चित तौर पर आप देवी पूजा करने के हकदार है वरना आप देवी पूजा करके केवल ढोंग करते हुए नजर आते हैं .
बातें कुछ कठिन और कड़वी है पर उद्देश्य साफ है की औरत को लाचार मजबूर बना देने की आदत व्यवस्था यानी सरकार में नहीं समाज में है . अतः समाज को स्वयं में बदलाव लाने की जरूरत है बलात्कारी पुत्र के होने से बेहतर है बेटी के माता-पिता बन जाओ विश्वास करो डीएनए ट्रांसफर होता है आपका वंश चलता है आपकी वंशावली से आप की पुत्री का नाम मत काटो और आशान्वित रहो की बेटी सच में बेटों के बराबर है .
धार्मिक संगठनों सामाजिक एवं जातिगत संगठनों थे उम्मीद की जा सकती है कि वे बेटियों की सुरक्षा के लिए सच्चे दिल से कोशिश है करें . अगर समाज सेवा का इतना ही बड़ा जज्बा भी कर आप समाजसेवी के ओहदे को अपने नाम के साथ जोड़ते हैं जो आपकी ड्यूटी बनती है आपका फर्ज होता है कि आप लैंगिक विषमताओं को समाप्त करें फोटो खिंचवाने का फितूर दिमाग से निकाल दें .
आध्यात्मिक एवं धार्मिक गुरुओं से अपेक्षा की जाती है कि वे ईश्वर के इस संदेश को लोक व्यापी करें जिसमें साफ तौर पर यह कहा गया है कि- हर एक शरीर में आत्मा होती है और ईश्वर की परिकल्पना नारी के बिना अधूरा ही होता है इसका प्रमाण सनातन में तो अर्धनारीश्वर का स्वरूप के तौर पर लिखा हुआ है .
नदी को लेकर सामाजिक व्यवस्था में बेहद विसंगतियां है . कुछ नहीं अभी अपनी मादा संतानों को सुकोमल बने रहने का पाठ पढ़ाती हैं . जबकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत की हर सड़क चाहे वह हैदराबाद की हो जबलपुर की हो भोपाल की हो जयपुर की हो नई दिल्ली की हो महिलाओं के लिए सुरक्षा कवच ना हो कर हिंसक नजर आने लगी हैं . समाज अगर अपना नजरिया नहीं बनता तो ऐसी घटनाएं कई बार सुर्खियों में बनी रहेगी और आपका विश्व गुरु कहलाने का मामला केवल मूर्खों का उद्घोष ही साबित होगा .
अब समाज यह तय करें क्यों से करना क्या है सामाजिक कानून कठोर होने चाहिए सामाजिक व्यवस्था इस मुद्दे को लेकर बेहद अनुशासन से बांध देने वाली होनी चाहिए अगर बच्चे के यानी नर संतान के आचरणों में जरा भी आप गलती देखते हैं या गंदगी देखते हैं तो तुरंत आपको उसके ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हुए उसे काउंसलिंग प्रोसेस पर बड़ा करना ही होगा अच्छे मां-बाप की यही पहचान होगी .
धार्मिक जन जिसमें टीकाकारों कथावाचकों, साधकों योगियों को भी अब सक्रिय होने की जरूरत है . यहां हम उन ढोंगीयों का आव्हान नहीं कर रहे हैं बल्कि उनसे हमारी अपेक्षाएं हैं जो वाकई में समाज के लिए सार्थक कार्य कर रहे हैं .
व्यवस्था पर भी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि व्यवस्था केवल घोषणा वीर ना रहे बल्कि जमीनी स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश करें कुछ बिंदु मेरे मस्तिष्क में बहुत दिनों से गूंज रहे हैं उन पर काम किया जा सकता है....
1 1000 की जनसंख्या कम से कम 50 किशोरयाँ लड़कियां तथा कम से कम 50 महिलाएं आत्मरक्षा प्रशिक्षण प्राप्त हो
2 हर विद्यालय में अनिवार्य रूप से सेल्फ डिफेंस का प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए
3 हर सिविल कोर्ट मुख्यालय में 24 * 7 अवधि के लिए विशेष न्यायिक इकाइयों की स्थापना की जावे
4 हर थाना क्षेत्र में एक एक वन स्टॉप सेंटर की स्थापना हो जहां एफ आई आर चिकित्सा सुरक्षा की व्यवस्था हो
5 प्रत्येक जिला मुख्यालय में फोरेंसिक जांच की व्यवस्था की जा सकती है . यकीन मानिए चंद्रयान मिशन मिशन पर हुई खर्च का आधा भाग इस व्यवस्था को लागू कर सकता .
6 रेप या यौन हिंसा रोकने के लिए सबसे अधिक फुलप्रूफ व्यवस्था की जानी चाहिए . घटना के उपरांत 3 दिन के बाद हैदराबाद में प्राथमिकी दर्ज की गई यह स्थिति दुखद है . जब हम तकनीकी रूप से बहुत सक्षम हो गए हैं ऐसी स्थिति में इस बात को तय करने की बिल्कुल जरूरत नहीं कि क्षेत्राधिकार किसका है अतः ऐसी टीमों का गठन करना जरूरी है जो मोबाइल हो और कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करने का कार्य कर सकें फिर अन्वेषण के लिए भले जिस पुलिस अधिकारी का क्षेत्राधिकार हो उसे सौंप देना पड़े मामला सौंपा जा सकता है .
7 :- अन्वेषण परिस्थिति जन्य साक्षी को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए
8 :- अन्वेषण हेतु केवल 7 दिनों का अवसर देना उचित प्रतीत होता है अगर साक्ष्यों की अत्यधिक जरूरत है तो अन्वेषण के लिए एसपी एडिशनल एसपी स्तर के अधिकारी से अनुमति लेकर ही अधिकतम अगले 7 दिन की अवधि सुनिश्चित की जा सकती है . अर्थात कुल मिलाकर 14 या 15 दिनों में अन्वेषण का कार्य प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों से कराया जाना उचित होगा .
9:- भले ही स्थापना व्यय कितना भी हो प्राथमिक अदालतें गठित कर ही देनी चाहिए जो डिस्ट्रिक्ट जज की सीधी मॉनिटरिंग में कार्य करें इनके लिए विशेष न्यायाधीशों की तैनाती बेहद आवश्यक है .
10:- सार्वजनिक यातायात साधनों में निजी सेवा प्रदाताओं से इस बात की गारंटी लेना चाहिए कि वह जिस वाहन चालक कंडक्टर को भेज रहे हैं अपराधिक प्रवृत्ति के तो नहीं है
11 :- हर सार्वजनिक यातायात व्यवस्था के प्रबंधन के लिए बंधन कारी होना चाहिए कि महिला सुरक्षा के लिए उसके परिवहन वाहन में क्या प्रबंध किए गए हैं निरापद प्रबंध के नियम भी बनाए जाने अनिवार्य है .
12 :- ट्रांसपोर्टेशन व्यवसाय जैसे ट्रक मालवाहक अन्य कार्गो वाहन के चालू किया उसके कंडक्टर की आपराधिक पृष्ठभूमि का परीक्षण करने के उपरांत ही उन्हें लाइसेंस जारी किया जावे
13 :- महिलाओं को लड़कियों को जीपीएस की सुरक्षा तथा आईटी विशेषज्ञ से ऐसी तकनीकी का विकास की अपेक्षा है जिससे खतरे या आसन्न खतरों की सूचना कंट्रोल रूम तथा महिला या बालिका द्वारा एक क्लिक पर भेजी जा सके ऐसी डिवाइस बनाना किसी भी आईटी विशेषज्ञ के लिए कठिन नहीं होगा .
14 :- पॉक्सो तथा अन्य यौन हिंसा की रोकथाम के लिए बनाई गई नियम अधिनियम प्रावधान आदेश निर्देश को एक यूनिफॉर्म पाठ्यक्रम के रूप में बालक बालिकाओं को पढ़ाना अनिवार्य है
15 :- अन्वेषण के उपरांत मामला दाखिल करने के लिए पुलिस को केवल अधिकतम 20 दिनों की अवधि देनी अनिवार्य है साथ ही निचली अदालत में मामले के निपटान के लिए केवल 20 दिनों का समय दिया जाना उचित होगा.
16 :- कोई भी मामला 20 दिन से अधिक समय लेता है तो हाईकोर्ट को मामले को अपनी मॉनिटरिंग में लेते हुए विलंब की परिस्थिति का मूल्यांकन करने का अधिकार होना चाहिए .
17 :- उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए क्रमशः 25 दिनों की अवधि नियत की जानी चाहिए जिसमें अपील करने के लिए मात्र हाईकोर्ट की स्थिति में 10 दिवस तथा सुप्रीम कोर्ट की स्थिति में 15 दिवस कुल 25 दिवस ( निचली अदालत के फैसले के उपरांत) देना उचित होगा . यहां विशेष अदालत द्वारा दिए गए फैसले के विरुद्ध 10 दिनों के अंदर अपील की जा सकती है तदोपरांत अगर निर्णय से असंतुष्ट हैं तो 15 दिनों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है .
अगर व्यवस्था और समाज चाहे तो उपरोक्त अनुसार कार्य करके एक विश्वसनीय व्यवस्था कायम कर सकते हैं .

गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
 

 

2012 दिल्ली सामूहिक बलात्कार मामला भारत की राजधानी दिल्ली में 16 दिसम्बर 2012 को हुई बलात्कार एवम हत्या की घटना रोंगटे खड़े कर दिए थे यह सत्य है कि संचार माध्यम के त्वरित हस्तक्षेप के कारण प्रकाश में आयी वरना यह भी एक सामान्य सा अपराध बनकर फाइलों में दबी होती.
सोशल मीडिया ट्वीटर फेसबुक आदि पर काफी कुछ लिखा गया. इस घटना के विरोध में पूरे नई दिल्ली,  कलकत्ता  और बंगलौर  सहित देश के छोटे-छोटे कस्बों तक में एक निर्णायक लड़ाई सड़कों पर नजर आ रही थी .   बावजूद इसके किसी भी प्रकार का परिवर्तन नजर नहीं आता इसके पीछे के कारण को हम आप सब जानते हैं .
बरसों से देख रहा हूं कि नवंबर से दिसंबर बेहद स्थितियों को सामने रख देते हैं . ठीक 7 साल पहली हुई इस घटना के बाद परिस्थितियों में कोई खास परिवर्तन नजर नहीं आ रहा है . हम अगले महीने की 26 तारीख को नए साल में भारतीय गणतंत्र की वर्षगांठ मनाएंगे पता नहीं क्या स्थिति होगी तब मुझे नहीं लगता कि हम तब जबकि महान गणतंत्र होने का दावा कर रहे होंगे तब हां तब ही किसी कोने में कोई निर्भया अथवा प्रियंका रेड्डी का परिवार सुबक रहा होगा तब तक टनों से मोम पिलाया जा चुका होगा . अधिकांश जनता आम दिनों की तरह जिंदगी बसर करने लगे होंगे... हां उनके हृदय में डर अवश्य बैठ चुका होगा . ना तो समाज में और ना ही व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नजर आएगा परंतु परिवर्तन आ सकता है अगर समाज में लोग यह सोचें कि :- हम रेपिस्ट को केवल फांसी के फंदे पर देखना चाहते हैं अगर वह अपना खून है तो भी ..! शायद बदलाव शुरू हो जाएगा, परंतु सब जानते हैं ऐसा संभव नहीं है .
व्यवस्था भी कानूनी व्यवस्थाओं का परिपालन करते-करते बरसों बिता देगी परंतु फांसी के फंदे तक रेपिस्ट नहीं पहुंच पाएंगे आप जानते हैं कि अब तक आजादी के बाद कुल 57 केस में फांसी की सजा हो पाई है . इसका अर्थ है कि कहीं ना कहीं रेपिस्ट न्याय व्यवस्था में लंबे लंबे प्रोसीजर्स के चलते लाभ उठा ही लेते हैं और जिंदा बनी रहते हैं कि वह लोग हैं जिन्हें जीने का हक नहीं है . एक साहित्यकार होने के बावजूद केवल रेप के मामलों में शीघ्र और अंततः फांसी की सजा की मांग क्यों कर रहा हूं..?
जी हां आपके ऐसे सवाल उठ सकते हैं लेकिन पूछना नहीं यह जघन्य अपराध है और इसका अंत फांसी के फंदे से ही होगा यह जितना जल्दी हो उतना समाज को और उन दरिंदों को संदेश देने के लिए काफी है जो रेप को एक सामान्य सा अपराध मानते हैं .
सुधि पाठको , साहित्यकार हूं कभी हूं संवेदनशील हूं इसका यह अर्थ नहीं है कि न्याय के पासंग पर यौन हिंसा को साधारण अपराधों की श्रेणी में रख कर तोलूं . यहां ऐसे अपराधों के लिए केवल मृत्युदंड की अपेक्षा है .
निर्भया कांड के बाद व्यवस्था ने व्यवस्थित व्यवस्था ना करते हुए ... इन अपराधों को स्पेस दिया है यह कहने में मुझे किसी भी तरह का संकोच नहीं हो रहा . हबीबगंज प्लेटफॉर्म पर हुए कांड के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने कुछ नए बदलाव लाने की कोशिश भी की है 50 महिला केंद्रों की स्थापना प्रत्येक जिले में कर दी गई है न्याय के मामले में मध्यप्रदेश की अदालतों में तेजी से काम हुआ है इसकी सराहना तो की जानी चाहिए लेकिन क्या यह पर्याप्त है मुझे लगता है कदापि नहीं आप भी यही सोच रहे होंगे कुछ सुझाव व्यवस्था के लिए परंतु उसके पहले कुछ सुझाव समाज के लिए बहुत जरूरी है अगर आप अभिभावक हैं तो अपनी पुरुष संतान को खुलकर नसीहत देने की पहल आज ही कर दीजिए कि महिलाओं के प्रति बेटियों के प्रति नकारात्मक और हिंसक भाव रखने वाले बच्चों यानी पुरुष संतानों के लिए घर के दरवाजे कभी नहीं खुल सकेंगे .
समाज ऐसा कदम नहीं उठाएगा जीने का सुधरने का एक मौका और चाहेगा परंतु इन्हीं मौकों के कारण महिलाओं का शोषण करने को स्पेस मिलता है जो सर्वदा गैर जरूरी है क्या अभिभावक ऐसा करना चाहेंगे मुझे नहीं लगता जो पुत्र मोह में फंसे हैं ऐसा धृतराष्ट्री समाज कदापि अपनी पुरुष संतान के खिलाफ कोई कठोर कदम उठाएगा . यह वही समाज है जहां लड़कों के लिए व्रत किए जाते हैं यह वही समाज है जहां कुछ वर्षों पूर्व तक बेटियों के जन्म से उसे उपेक्षित भाव से देखा जाता है इतना ही नहीं बेटी की मां के प्रति नेगेटिविटी का व्यवहार शुरू हो जाना सामान्य बात है .
यह वही समाज है जहां पुत्रवती भव् होने का आशीर्वाद दिया जाता है . समाज से किसी को भी बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं है . अगर आप मेरी बात को समझ पा रहे हैं तो गौर कीजिए बेटियों के प्रति स्वयं नजरिया पॉजिटिव करिए तो निश्चित तौर पर आप देवी पूजा करने के हकदार है वरना आप देवी पूजा करके केवल ढोंग करते हुए नजर आते हैं .
बातें कुछ कठिन और कड़वी है पर उद्देश्य साफ है की औरत को लाचार मजबूर बना देने की आदत व्यवस्था यानी सरकार में नहीं समाज में है . अतः समाज को स्वयं में बदलाव लाने की जरूरत है बलात्कारी पुत्र के होने से बेहतर है बेटी के माता-पिता बन जाओ विश्वास करो डीएनए ट्रांसफर होता है आपका वंश चलता है आपकी वंशावली से आप की पुत्री का नाम मत काटो और आशान्वित रहो की बेटी सच में बेटों के बराबर है .
धार्मिक संगठनों सामाजिक एवं जातिगत संगठनों थे उम्मीद की जा सकती है कि वे बेटियों की सुरक्षा के लिए सच्चे दिल से कोशिश है करें . अगर समाज सेवा का इतना ही बड़ा जज्बा भी कर आप समाजसेवी के ओहदे को अपने नाम के साथ जोड़ते हैं जो आपकी ड्यूटी बनती है आपका फर्ज होता है कि आप लैंगिक विषमताओं को समाप्त करें फोटो खिंचवाने का फितूर दिमाग से निकाल दें .
आध्यात्मिक एवं धार्मिक गुरुओं से अपेक्षा की जाती है कि वे ईश्वर के इस संदेश को लोक व्यापी करें जिसमें साफ तौर पर यह कहा गया है कि- हर एक शरीर में आत्मा होती है और ईश्वर की परिकल्पना नारी के बिना अधूरा ही होता है इसका प्रमाण सनातन में तो अर्धनारीश्वर का स्वरूप के तौर पर लिखा हुआ है .
नदी को लेकर सामाजिक व्यवस्था में बेहद विसंगतियां है . कुछ नहीं अभी अपनी मादा संतानों को सुकोमल बने रहने का पाठ पढ़ाती हैं . जबकि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत की हर सड़क चाहे वह हैदराबाद की हो जबलपुर की हो भोपाल की हो जयपुर की हो नई दिल्ली की हो महिलाओं के लिए सुरक्षा कवच ना हो कर हिंसक नजर आने लगी हैं . समाज अगर अपना नजरिया नहीं बनता तो ऐसी घटनाएं कई बार सुर्खियों में बनी रहेगी और आपका विश्व गुरु कहलाने का मामला केवल मूर्खों का उद्घोष ही साबित होगा .
अब समाज यह तय करें क्यों से करना क्या है सामाजिक कानून कठोर होने चाहिए सामाजिक व्यवस्था इस मुद्दे को लेकर बेहद अनुशासन से बांध देने वाली होनी चाहिए अगर बच्चे के यानी नर संतान के आचरणों में जरा भी आप गलती देखते हैं या गंदगी देखते हैं तो तुरंत आपको उसके ऊपर मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हुए उसे काउंसलिंग प्रोसेस पर बड़ा करना ही होगा अच्छे मां-बाप की यही पहचान होगी .
धार्मिक जन जिसमें टीकाकारों कथावाचकों, साधकों योगियों को भी अब सक्रिय होने की जरूरत है . यहां हम उन ढोंगीयों का आव्हान नहीं कर रहे हैं बल्कि उनसे हमारी अपेक्षाएं हैं जो वाकई में समाज के लिए सार्थक कार्य कर रहे हैं .
व्यवस्था पर भी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि व्यवस्था केवल घोषणा वीर ना रहे बल्कि जमीनी स्तर पर बदलाव लाने की कोशिश करें कुछ बिंदु मेरे मस्तिष्क में बहुत दिनों से गूंज रहे हैं उन पर काम किया जा सकता है....
1 1000 की जनसंख्या कम से कम 50 किशोरयाँ लड़कियां तथा कम से कम 50 महिलाएं आत्मरक्षा प्रशिक्षण प्राप्त हो
2 हर विद्यालय में अनिवार्य रूप से सेल्फ डिफेंस का प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाए
3 हर सिविल कोर्ट मुख्यालय में 24 * 7 अवधि के लिए विशेष न्यायिक इकाइयों की स्थापना की जावे
4 हर थाना क्षेत्र में एक एक वन स्टॉप सेंटर की स्थापना हो जहां एफ आई आर चिकित्सा सुरक्षा की व्यवस्था हो
5 प्रत्येक जिला मुख्यालय में फोरेंसिक जांच की व्यवस्था की जा सकती है . यकीन मानिए चंद्रयान मिशन मिशन पर हुई खर्च का आधा भाग इस व्यवस्था को लागू कर सकता .
6 रेप या यौन हिंसा रोकने के लिए सबसे अधिक फुलप्रूफ व्यवस्था की जानी चाहिए . घटना के उपरांत 3 दिन के बाद हैदराबाद में प्राथमिकी दर्ज की गई यह स्थिति दुखद है . जब हम तकनीकी रूप से बहुत सक्षम हो गए हैं ऐसी स्थिति में इस बात को तय करने की बिल्कुल जरूरत नहीं कि क्षेत्राधिकार किसका है अतः ऐसी टीमों का गठन करना जरूरी है जो मोबाइल हो और कहीं भी प्राथमिकी दर्ज करने का कार्य कर सकें फिर अन्वेषण के लिए भले जिस पुलिस अधिकारी का क्षेत्राधिकार हो उसे सौंप देना पड़े मामला सौंपा जा सकता है .
7 :- अन्वेषण परिस्थिति जन्य साक्षी को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए
8 :- अन्वेषण हेतु केवल 7 दिनों का अवसर देना उचित प्रतीत होता है अगर साक्ष्यों की अत्यधिक जरूरत है तो अन्वेषण के लिए एसपी एडिशनल एसपी स्तर के अधिकारी से अनुमति लेकर ही अधिकतम अगले 7 दिन की अवधि सुनिश्चित की जा सकती है . अर्थात कुल मिलाकर 14 या 15 दिनों में अन्वेषण का कार्य प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों से कराया जाना उचित होगा .
9:- भले ही स्थापना व्यय कितना भी हो प्राथमिक अदालतें गठित कर ही देनी चाहिए जो डिस्ट्रिक्ट जज की सीधी मॉनिटरिंग में कार्य करें इनके लिए विशेष न्यायाधीशों की तैनाती बेहद आवश्यक है .
10:- सार्वजनिक यातायात साधनों में निजी सेवा प्रदाताओं से इस बात की गारंटी लेना चाहिए कि वह जिस वाहन चालक कंडक्टर को भेज रहे हैं अपराधिक प्रवृत्ति के तो नहीं है
11 :- हर सार्वजनिक यातायात व्यवस्था के प्रबंधन के लिए बंधन कारी होना चाहिए कि महिला सुरक्षा के लिए उसके परिवहन वाहन में क्या प्रबंध किए गए हैं निरापद प्रबंध के नियम भी बनाए जाने अनिवार्य है .
12 :- ट्रांसपोर्टेशन व्यवसाय जैसे ट्रक मालवाहक अन्य कार्गो वाहन के चालू किया उसके कंडक्टर की आपराधिक पृष्ठभूमि का परीक्षण करने के उपरांत ही उन्हें लाइसेंस जारी किया जावे
13 :- महिलाओं को लड़कियों को जीपीएस की सुरक्षा तथा आईटी विशेषज्ञ से ऐसी तकनीकी का विकास की अपेक्षा है जिससे खतरे या आसन्न खतरों की सूचना कंट्रोल रूम तथा महिला या बालिका द्वारा एक क्लिक पर भेजी जा सके ऐसी डिवाइस बनाना किसी भी आईटी विशेषज्ञ के लिए कठिन नहीं होगा .
14 :- पॉक्सो तथा अन्य यौन हिंसा की रोकथाम के लिए बनाई गई नियम अधिनियम प्रावधान आदेश निर्देश को एक यूनिफॉर्म पाठ्यक्रम के रूप में बालक बालिकाओं को पढ़ाना अनिवार्य है
15 :- अन्वेषण के उपरांत मामला दाखिल करने के लिए पुलिस को केवल अधिकतम 20 दिनों की अवधि देनी अनिवार्य है साथ ही निचली अदालत में मामले के निपटान के लिए केवल 20 दिनों का समय दिया जाना उचित होगा.
16 :- कोई भी मामला 20 दिन से अधिक समय लेता है तो हाईकोर्ट को मामले को अपनी मॉनिटरिंग में लेते हुए विलंब की परिस्थिति का मूल्यांकन करने का अधिकार होना चाहिए .
17 :- उच्च न्यायालय तथा सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए क्रमशः 25 दिनों की अवधि नियत की जानी चाहिए जिसमें अपील करने के लिए मात्र हाईकोर्ट की स्थिति में 10 दिवस तथा सुप्रीम कोर्ट की स्थिति में 15 दिवस कुल 25 दिवस ( निचली अदालत के फैसले के उपरांत) देना उचित होगा . यहां विशेष अदालत द्वारा दिए गए फैसले के विरुद्ध 10 दिनों के अंदर अपील की जा सकती है तदोपरांत अगर निर्णय से असंतुष्ट हैं तो 15 दिनों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है .
अगर व्यवस्था और समाज चाहे तो उपरोक्त अनुसार कार्य करके एक विश्वसनीय व्यवस्था कायम कर सकते हैं .

महात्मा गांधी को लेकर पीएम नरेन्द्र मोदी का क्या दृष्टिकोण है? यह सवाल एक बार फिर इसलिए उठ रहा है कि बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने एक बार पुनः नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार दिया है.
खबर है कि भोपाल से बीजेपी सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने बुधवार को लोकसभा में एक डिबेट के दौरान नाथूराम गोडसे को देशभक्त कहा.
इसके बाद तो न केवल बड़ा सियासी हंगामा हुआ, बल्कि पीएम मोदी ही विरोधियों के निशाने पर आ गए?
प्रियंका गांधी ने ट्वीट किया- आज देश की संसद में खड़े होकर भाजपा की एक सांसद ने गोडसे को देशभक्त बोल ही दिया. अब प्रधानमंत्रीजी (जिन्होंने महात्मा गांधी की 150वीं जयंती धूमधाम से मनाई) से अनुरोध है कि दिल से बता दें कि गोडसे के बारे में उनके क्या विचार हैं? महात्मा गांधी अमर हैं!
यही नहीं, रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा- देश गांधी जयंती का 150वां साल मना रहा है, और भाजपा सांसद, प्रज्ञा ठाकुर गांधीजी के हत्यारे गोडसे को ‘शहीद’ बता महिमामंडन कर रही हैं. गोडसे की सोच के भाजपाइयों ने जो गांधीवादी मुखौटा लगाया था, आज संसद में उतर गया. मोदीजी, देश अब आपको व भाजपा को कभी ‘मन से माफ नही करेगा’!
खबर है कि बुधवार को लोकसभा में एक डिबेट के दौरान प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने ये बयान दिया. लोकसभा में एसपीजी संशोधन बिल पर डीएमके सांसद ए राजा अपनी राय रख रहे थे. इस दौरान ए राजा ने गोडसे के एक बयान का जिक्र किया जिसमें गोडसे ने कहा कि था कि उसने महात्मा गांधी को क्यों मारा था?
ए राजा जब बोल ही रहे थे, उसी दौरान प्रज्ञा ठाकुर ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि- आप एक देशभक्त का उदाहरण नहीं दे सकते हैं!
उनके इतना कहते ही लोकसभा में हंगामा मच गया. वैसे, प्रज्ञा सिंह ठाकुर के बयान को लोकसभा के रिकॉर्ड से हटा दिया गया है, लेकिन प्रज्ञा ठाकुर के खिलाफ पार्टी कार्रवाई हो सकती है?
ऐसा पहली बार नहीं है कि प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने नाथूराम गोडसे को देशभक्त करार दिया हो. लोकसभा चुनाव 2019 के दौरान भी उन्होंने नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताया था.
तब भी पीएम मोदी सवालों के घेरे में थे, इसके कारण उन्होंने कहा था- भले ही इस मामले में उन्होंने (साध्वी प्रज्ञा) माफी मांग ली हो, लेकिन मैं अपने मन से उन्हें कभी भी माफ नहीं कर पाऊंगा!
बहरहाल, साध्वी प्रज्ञा ने एक बार फिर पीएम मोदी के लिए सियासी परेशानी खड़ी कर दी है, देखना होगा कि अब पीएम मोदी क्या जवाब देते हैं?
कुमार विश्वास ने शब्दबाण चलाए और ट्वीट किया- मैं इन्हें फिर से माफ नहीं कर पाऊंगा!

संजय राय
 

 महाराष्ट्र में सत्ता के समीकरण जमाने और बिगाड़ने में शरद पवार का कोई सानी नहीं है. इस खेल में उन्होंने बड़े -बड़े दिग्गजों को किनारे लगाया है और इसी का परिचय इस बार भी दिया.  विधानसभा चुनावों में अपने भाषणों में पवार कहते थे अभी मैं बूढा नहीं हुआ हूँ ,कुछ लोगों को अब भी सत्ता से बाहर घर बिठाने का मादा रखता हूँ.  उस समय उनके विरोधी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के नेता भले ही उनकी बातों को हलके में ले रहे थे लेकिन प्रदेश में चुनाव परिणाम के बाद बीस दिन तक चला सत्ता बनाने के इस संग्राम को देखें तो हर सूत्र शरद पवार से जुड़ा ही नजर आया. मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और उनके सहयोगी भले ही चुनाव प्रचार में यह कहते रहे की शरद पवार की राजनीति अब ख़त्म हो गयी ,उनका समय ख़त्म हो गया लेकिन पवार के वार ने उन्हें सबसे बड़ा दल होने के बाद भी सत्ता की कुर्सी पर नहीं बैठने दिया. महाराष्ट्र में विभिन्न पार्श्वभूमि और विचारधाराओं की पार्टियों को एक साथ लेकर सरकार बनाने का अनुभव पवार का अच्छा ख़ासा है और इसकी शुरुवात उन्होंने 1978 में की और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने वाले प्रदेश के सबसे युवा नेता बने ,उनका यह रेकॉर्ड आज भी कायम है. शरद पवार पर अपने ही राजनीतिक गुरु वसंत दादा पाटिल की सरकार गिराने और उनके साथ विश्वासघात करने का आरोप लगता रहा है. यह कहानी 80 के दशक की है और महारष्ट्र की राजनीति का जो चित्र आज दिख रहा है दोनों में काफी कुछ समानता है. 1975 में तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाए जाने के बाद उनका कांग्रेस में भी विरोध बढ़ने लगा था और परिणाम कांग्रेस में टूट हुआ. यशवंतराव चव्हाण और ब्रम्हानंद रेड्डी ने इंदिरा गांधी के खिलाफ बगावत कर रेड्डी कांग्रेस की स्थापना की. वसंतदादा पाटिल और शरद पवार ने यशवंतराव चव्हाण का साथ दिया और रेड्डी कांग्रेस में शामिल हो गए.  महाराष्ट्र में कांग्रेस की कमान नासिकराव तिरपुडें को मिल गयी जो इंदिरा गांधी के समर्थक थे. 1978 का विधानसभा चुनाव हुआ और महाराष्ट्र में जनता पार्टी ,इंदिरा कांग्रेस और रेड्डी कांग्रेस ने अलग -अलग चुनाव लड़ा. जनता पार्टी को 99,इंदिरा काँग्रेस को  62, और  रेड्डी काँग्रेस को  69 सीटों पर विजय मिली. शेतकरी कामगार पक्ष को  13, माकपा को  9 और 36 सीटों पर निर्दलीय जीतकर आये. यानी किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला  था . महाराष्ट्र में  जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखने के लिए रणनीति बनने लगी थी.  इस सिलसिले में रेड्डी काँग्रेस के वसंतदादा पाटिल ने  दिल्ली जाकर  यशवंतराव चव्हाण, ब्रह्मानंद रेड्डी, चंद्रशेखर से चर्चाएं की और उनके साथ इंदिरा गांधी से चर्चा की.  चर्चा का मुख्य बिंदु यही था महाराष्ट्र की सत्ता से जनता पार्टी को दूर रखना.  इंदिराजी ने उस पर अपनी सहमति दे दी और प्रदेश का सबसे बड़ा दल जनता पार्टी ज्यादा सीटें जीतकर भी सत्ता से बाहर हो गया. वसंतदादा पाटिल मुख्यमंत्री बने और शरद पवार उद्योग मंत्री.  लेकिन नासिकराव तिरपुडें को लगातार सत्ता में रहते हुए भी वसंतदादा पाटिल की आलोचना करते थे. तिरपुंडे उप मुख्यमंत्री थे लिहाजा वे बार बार यह करके अपना वर्चस्व दिखाना चाहते थे. ऐसी परिस्थितियों में करीब चार माह बाद ही "1978 के जुलाई महीने में विधानसभा का मानसून अधिवेशन शुरू हुआ शरद पवार ने अपना दांव चल दिया. वे 40 विधायक लेकर सरकार से बाहर हो गए. उनके साथ सुशील कुमार शिंदे, सुंदरराव सोळंके और दत्ता मेघे जैसे मंत्रियों ने भी इस्तीफ़ा देकर सरकार छोड़ दी.  वसंतदादा पाटिल की सरकार गिर गयी और पवार जनता पार्टी को साथ लेकर पहली बार मुख्यमंत्री बने.  उन्होंने जो गठबंधन बनाया था वह पुलोद ( पुरोगामी लोकशाही दल ) यानी प्रगतिशील डेमोक्रेटिक दल का नाम दिया.  महाराष्ट्र में यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी और वह भी शरद पवार के नेतृत्व में. वसंतदादा का साथ छोड़ने के बाद पवार ने समाजवादी कांग्रेस नामक पार्टी की स्थापना की थी.  बताया जाता है कि पवार ने इस खेल में यशवंतराव चव्हाण को भी भरोसे में लिया था और उनकी के पार्टी के मुख्यमंत्री की सरकार गिरा दी थी. शरद पवार की यह सरकार पौने दो साल तक ही चली.  केंद्र में जनता पार्टी की सरकार गिराकर इंदिरा गांधी जब पूर्ण बहुमत के साथ फिर से सत्तासीन हुई तो उन्होंने महाराष्ट्र सरकार को भंग कर दिया था.  इसके लिए उन्होंने ना सिर्फ जनता पार्टी में तोड़ फोड़ की अपितु शरद पवार के विधायकों को भी तोड़ दिया.  इस बार विधानसभा चुनाव में जब भारतीय जनता पार्टी ने एनसीपी के दर्जनों विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया था तो पवार ने सार्वजनिक  बात का उदाहरण दिया था.  उन्होंने कहा था कि एक बार उनके 60 विधायक थे और 54 ने उनका साथ छोड़ दिया था लेकिन अगले चुनाव में वे फिर से 60 विधायकों को चुनवाने में सफल हुए थे.  पवार ने इस कहा था इस बार भी वे वही इतिहास दोहराएंगे.  उन्होंने कहा था कि कई लोगों को घर बिठाना है.  पवार ने उम्र के इस पड़ाव में कुछ वैसा ही इस  चुनाव में कर दिखाया है.  पिछले 20 दिनों  से महाराष्ट्र में जो सत्ता संघर्ष चल रहा है उसका यह परिणाम लाने में शरद पवार की भूमिका महत्वपूर्ण रही. जिस तरह से उन्होंने कांग्रेस और शिवसेना को करीब लाकर एक नया समीकरण बनाया है यह उसी घटना को याद दिलाता है जब जनता पार्टी को रोकने के लिए इंदिरा कांग्रेस और रेड्डी कांग्रेस का मेल हुआ था.

बधाई दीजिए कि बीती 23 जुलाई, 2016 को 89 साल की हो गई अपनी आकाशवाणी. उम्र के लिहाज से इसे आप बूढा कह सकते हैं. किंतु अपने मन की बात कहने के लिए हमारे प्रधानमंत्री जी द्वारा आकाशवाणी को चुनने से साफ है कि आकाशवाणी बीते वक्त का कोई चूका हुआ माध्यम नहीं है. हकीकत यह है कि रेडियो एक अरसे से जनसंवाद का लाजवाब माध्यम रहा है. सत्य-अहिंसा का अपने संदेश को भारतवासियों तक पहुंचाने के लिए 1930 में महात्मा गांधी ने भी रेडियो को ही चुना था. 15 अगस्त, 1947 को सबसे पहले रेडियो पर पंडित जवाहर लाल नेहरु की खनकती आवाज सुनकर ही भारतवासियों ने जाना था कि अब देश आजाद है. मौका चाहे, 20 नवंबर, 1964 चीन हमले के वक्त नेहरु द्वारा राष्ट्र के संबोधन का रहा हो अथवा इंदिरा जी द्वारा बढती आबादी, अनाज की कमी पर जन-अपील का, हमारे नेता रेडियो के जरिए जनता से जुङते रहे हैं. इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के हमले का माकूल जबाव देने और इमरजेंसी के ऐलान के लिए भी रेडियो के जरिये ही किया था.

माना जाता है कि रेडियो को जनसंवाद माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने वाली शासकीय शख्सियत के रूप में अमेरिका में न्यूयार्क के तत्कालीन गर्वनर रूजवेल्ट ( वर्ष-1929) पहले थे.  उन्होने रेडियो को जनंसवाद के माध्यम के रूप में तवज्जो दी. युवावस्था में रेडियो के लिए काम कर चुके रोनाल्ड रीगन जब 1982 में अमेरिका के राष्ट्रपति हुए, तो उन्होने हर शनिवार रेडियो से जरिए जनसंवाद शुरु किया. हालांकि द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945), मानवता के इतिहास में एक काला धब्बा है; किंतु इसमें कोई शक नहीं कि इस युद्ध में बम-बंदूकों का इस्तेमाल तो हुआ ही, एक लङाई रेडियो के जरिए भी लङी गई. इसके बाद ही दुनिया की सरकारों ने रेडियो की असल ताकत को पहचाना.

इससे यह आशा भी बलवती होती है कि यदि रेडियो पर जम आई धूल को झाङ-पोछकर नये रुतबे के साथ पेश किया जायेे, तो यह फिर से जनसंवाद का एक बेहतरीन और व्यापक औजार बन सकता है. ''यह आकाशवाणी की लोकप्रसारक सेवा है'' - गत् कुछ वर्षों से आकाशवाणी ने यह कहने का मौका पुनः हासिल करने की कवायद शुरु कर दी है. वह स्टुडियो के पुराने औपचारिक अंदाज और दीवारों से बाहर निकल कुछ अनौपचारिक और नूतन होने के मूड में सामने आने लगी है. हांलाकि पुरानी खेप को खपाने की बजाय, नई पौध के हाथों कमान देने के मूड बना, तो रास्ते और भी बनेंगे और आकाशवाणी और भी जवां होगी.

आज सैकङों टी वी चैनल हैं. निजी एफ एम चैनल हैं. सामुदायिक रेडियो हैं. लाखों अखबार हैं. करोङो मोबाइल हैं. सामाजिक संवाद के लिए सोशल मीडिया है. जो सुनना चाहो, जानना चाहो, देखना चाहो; इंटरनेट पर पूरी दुनिया है. रेडियो से इतर यदि हम आकाशवाणी की बात करें, तो तकनीकी क्रांति और सरकारी माध्यमों पर सरकारी दबाव के चित्र को सामने रखकर आज आप पूछ सकते है कि ऐसे में कोई आकाशवाणी को क्यों सुने ? मेरा मानना है, यही वह एक प्रश्न है जो कि आकाशवाणी के सामने एक बङी चुनौती भी रखता है और उसके लिए संभावनायें भी पेश करता है.

चुनौती यह है कि यह कैसे हो कि दुनिया आकाशवाणी को सुनना चाहें. संभावना यह है कि अपने खर्चों के लिए आकाशवाणी किसी विज्ञापन या प्रायोजक की ओर ताकने को मजबूर नहीं है. सरकार उसके खर्चे की व्यवस्था करती है. अतः आकाशवाणी लोकप्रसारक की अपनी उस भूमिका के साथ न्याय कर सकती है, जो बाजार के दबाव में जनसंचार के दूसरे माध्यम नहीं कर पा रहे. तकनीकी और भाषाई तौर पर आज जितनी विविधता और पहुंच आकाशवाणी की है, उतनी सिर्फ भारत नहीं, पूरे एशिया के किसी जनसंचार माध्यम की नहीं है. दुनिया में कोई और रेडियो अथवा टी वी चैनल समूह नहीं है, जिसके पास कर्नाटक अथवा हिंदोस्तानी शास्त्रीय संगीत व वाद्य वृंद प्रस्तुतियों को समर्पित कोई चैनल हो. कभी रेडियो घर में रखने के लिए लाईसेंस व सालाना रखना पङता था, आज रेडियो मुफ्त और बिना बिजली चलने वाला माध्यम है. इसे घर में सुनें या खेत की जुताई करते हुए बैल के गले में टांगकर. रेडियो किसी अनपढ को खेती के गुर सिखा सकता है. रेडियो किसी अंधे को पढा सकता है. एक साथ इतनी सारी संभावनायें किसी और जनसंचार माध्यम में नहीं होना, आकाशवाणी के लिए संभावनाओं के कई द्वार खोलता है.

गौर कीजिए कि भारत में रेडियो प्रसारण, अंग्रेजी हुकुमत की देन थी. उन्होने ही एक निजी कंपनी को अधिकृत कर भारत में 23 जुलाई, 1927 को पहला (मंुबई) और 26 अगस्त, 1927 को दूसरा (कलकत्ता) रेडियो स्टेशन शुरु कराया. सरकारी होने के बाद 8 जून, 1936 से इन्हे एक नया और नायाब नाम मिला: 'आॅल इंडिया रेडियो'.

जब भारत आजाद हुआ, तो आकाशवाणी के पास कुल छह केन्द्र, 18 ट्रांसमीटर और देश के ढाई प्रतिशत भूगोल और 11 प्रतिशत लोगों में इसकी पहुंच थी; आज आकाशवाणी के पास 413 प्रसारण केन्द्र हैं. देश के 92 प्रतिशत भूगोल और 99.19 प्रतिशत आबादी तक इसकी पहुंच है. लेह-तवांग जैसे सुदूर क्षेत्र, कठिन सीमायें और हमारे जाबांज सैनिक भी इस जद में शामिल हैं, जिन्हे आकाशवाणी के अलावा और कोई जनसंचार माध्यम बाकि दुनिया से नहीं जोङता. 23 भाषाओं और 146 बोलियों में इसके कार्यक्रम प्रसारित होते हैं. सात भारतीय और 16 विदेशी भाषाओं के साथ आकाशवाणी की विदेश प्रसारण सेवा दुनिया के 54 देशों में अपनी पहुंच रखती है. मनोरजंन और समाचारों के लिए मोबाइल सेट और डी2एच पर लोगों की बढती रुचि को ध्यान में रखते हुए आकाशवाणी ने अपने कुल मौजूदा 584 ट्रांसमीटर में सबसे ज्यादा संख्या, 391 एफ एम ट्रंासमीटर की ही रखी है. आकाशवाणी के प्रसारण व कार्यक्रम निर्माण की तकनीक पूरी तरह डिजीटल है. आकाशवाणी के पास राष्ट्रीय से लेकर स्थानीय स्तर तक स्टुडियो सुविधा उपलब्ध है. डी2एच पर इसके 21 चैनल उपलब्ध है. आकाशवाणी के सभी प्रमुख कार्यक्रमों को अब आप कभी भी इंटरनेट पर सुन सकते हैं.

तकनीकी उत्थान के इस चित्र को सामने रखें, तो निस्संदेह हम कह सकते हैं कि चुनौतियों से निबटने के लिए रेडियो ने तैयारी की है. किंतु यदि आकाशावाणी के श्रोता अनुसंधान एकांश, निगरानी इकाई की कार्यप्रणाली, उसके लिए उपयोग की जा रही तकनीक और राष्ट्रीय प्रसारण सेवा की उपेक्षा के चित्रों पर निगाह डालें, तो कह सकते हैं कि अभी तैयारी और चाहिए. यदि विदेश प्रसारण सेवा के कार्यक्रम प्रसारण के अपने लक्ष्य क्षेत्र की बजाय भटककर दूसरे क्षेत्र में सुनाई दें, तो भी कहा जा सकता है कि कमियों से उबरने की जरूरत यहां भी है. विशेष श्रोता और स्थान विशेष के लिए एफ एम ट्रांसमीटरों का इस्तेमाल करके बङे-बङे राजमार्गांे के बीच जन-जुङाव की पगंडडियों का एक विशाल संजाल खङा किया जा सकता है. इस लिहाज से कह सकते हैं कि नई उपलब्ध तकनीक का जितना अधिकतम सदुपयोग संभव है, वह किया जाना अभी बाकी है.

लोकप्रसारक की भूमिका की दृष्टि से यदि हम निजी मीडिया के रुख पर गौर करें, तो आकाशवाणी-दूरदर्शन सरीखे माध्यमों की जरूरत और ज्यादा महसूस होती है. जरा सोचिए, लोकसेवक की अपनी भूमिका में संवाद के लिए सरकार के पास सुदूर इलाकों में पहुंच वाले जनसंचार माध्यम के नाम पर आकाशवाणी और दूरदर्शन के सिवा और क्या है ? क्या कोई और अथवा निजी तंत्र है, जो सरकार की योजनाओं, मुहिमों को ऐसे इलाकों में पहुंचा रहा है ? क्या कोई निजी टी. वी. या रेडियो चैनल है, जिसमें आपको गांव के गरीब की सीधी आवाज सुनाई देती हो ? कुछ सरकारी वेबसाइट, पोर्टल व सरकारी पत्रिकायें हैं. उनकी पहुंच सीमित तो है ही, गरीब की आवाज की उपस्थिति उनमें भी नहीं है. केन्द्र से लेकर राज्य व जिला स्तरीय सूचना व जनसंपर्क केन्द भी महज् औपचारिक बनकर रह गये हैं.

इस दृष्टि से देखें तो यह कह सकते हैं कि आकाशवाणी-दूरदर्शन को सरकारी छाया से मुक्त होने से ज्यादा जरूरत, सरकार की नीतियों, कानूनों और लोक योजनाओं की जानकारी और कार्यप्रणाली को पूरी मुस्तैदी व ईमानदारी के साथ लोगों तक पहुंचाने की है. जरूरत है कि आकाशवाणी-दूरदर्शन सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन और उसमें आ रही दिक्कतों को उजागर करे. एक लोक प्रसारक के रूप में सरकार व लोगों के बीच में डाकिये तथा लोक निगरानी तंत्र की भूमिका निभाये.

2004 से लेकर 2011 तक के जनगणना दस्तावेजों के मुताबिक, भारत के एक-चौथाई अघ्यापक विद्यालय ही नहीं आते. प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में डाॅक्टर की उपस्थिति के आंकङे बेहद निराशाजनक हैं. गरीबी रेखा से नीचे होते हुए भी बीपीएल कार्डधारक बन पाने का सपना कई को अभी भी इस जन्म में पूरा होता नहीं दिखता. उचित दर दुकानों से हक का राशन लेना गंावों में अभी एक जंग लङने जैसा है. आकाशवाणी की असल भूमिका, लोक जरूरत के ऐसे मसलों को सामने लाने की है; 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' के अपने सूत्र वाक्य का सिरा पकङकर उसे अंजाम तक पंहुचाने की है.

किंतु यह तभी संभव है, जब आकाशवाणी-दूरदर्शन के संवाददाता प्रेस विज्ञप्ति व बयान आधारित समाचारों की दुनिया से बाहर निकलें. कार्यक्रम निष्पादक, पगडंडियों के पैदल रास्ते पर चलकर गरीब गांवों, कस्बों और झोपङ पट्टियों की उस उपेक्षित दुनिया में जाने की खुद पहल करें, जिन्हे आज भी इंतजार है कि कोई आयेगा और एक न एक दिन उनकी आवाज सरकार द्वारा सुनी जायेगी. रेडियो सुनकर और उसके प्रसारक को अपनी प्रतिक्रिया से अवगत कराकर दायित्व निर्वाह की इस प्रक्रिया को हम दोतरफा बना सकते हैं. आइये, बनायें.

पिछले लम्बे समय से महाराष्ट्र में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन और बिगड़ रहे थे, वह माहौल लोकतंत्र की स्वस्थता की दृष्टि से उचित नहीं था, वहां हर क्षण लोकतंत्र टूट-बिखर रहा था, लेकिन इन टूटती-बिखरती राजनीतिक स्थितियों के बीच एकाएक शांतिपूर्ण विस्फोट हुआ।

अपने अनूठे एवं विस्मयकारी फैसलों से सबको चैंकाने वाले नरेंद्र मोदी एवं भाजपा सरकार ने महाराष्ट्र में सरकार बनाने की असमंजस्य एवं घनघोर धुंधलकों के बीच रातोंराज जिस तरह का आश्चर्यकारी वातावरण निर्मित करके सुबह की भोर में उसका उजाला बिखेरा वह उनके राजनीतिक कौशल का अद्भुत उदाहरण है। जिस राजनीतिक परिवक्वता, साहस एवं दृढ़ता से उन्होंने न केवल बाजी को पलटा बल्कि एनसीपी के अजित पवार की मदद से सरकार बना ली है। सरकार गठन के लिए शिवसेना के नेतृत्व में एनसीपी और कांग्रेस के बीच सरकार गठन के लिए बातचीत अंतिम दौर में पहुंच चुकी थी लेकिन शनिवार सुबह बड़ा उलटफेर करते हुए देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री और एनसीपी विधायक दल के नेता अजित पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ भी ले ली। यह खबर जंगल में आग की तरह फैली और उन तमाम राजनीतिक जानकारों की समझ को गलत साबित कर दिया, जो इस पक्ष को पूरी तरह से नजरअंदाज कर चुके थे। ऐसा नहीं है कि महाराष्ट्र की राजनीति में यह कोई पहली घटना है। यदि राज्य के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालेंगे तो आपको पता चलेगा कि मौका परस्ती वहां पहले भी होती रही है, तीनों राजनीतिक दलों की बैठकों में भी यह चल रहा था, और रातोरात बदले परिदृश्यों में भी यही हुआ, लेकिन यह घटना मोदी की अन्य घटनाओं की तरह लम्बे समय तक राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बनी रहेगी।
 
पिछले कुछ दिनों से महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस एवं एनसीपी के बीच हुई बैठकों एवं लिये गये निर्णयों से तय हो गया था कि शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री के नाम पर तीनों पार्टियों में सहमति बन गयी है एवं मातोश्री पर उत्सव का वातावरण भी बन गया था। इन जारी हलचलों के बीच भाजपा के मौन एवं सन्नाटा से किसी को भी यह अन्दाजा नहीं था कि कुछ ऐसा अद्भुत घटित हो जायेगा। इतने बड़े और राजनीतिक पलटवार का किसी को भान तक नहीं था। शायद यही राजनीतिक परिपक्वता एवं कौशल भाजपा एवं नरेन्द्र मोदी को अनूठा साबित करता है। दो दिन पूर्व शरद पवार के साथ हुई बैठक को भी बहुत चतुराई से जन-चर्चा का विषय नहीं बनने दिया, जबकि उसी बैठक में यह राजनीतिक समीकरण संभवतः तय हो गया था। अब भले ही एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार यह कह रहे हों कि यह अजित पवार का फैसला है और उन्हें संज्ञान में लिए बिना अजित ने बीजेपी के साथ सरकार बनाई लेकिन महाराष्ट्र में एनसीपी की सहयोगी कांग्रेस इस पूरे उलटफेर के लिए एनसीपी एवं शरद पवार को ही जिम्मेदार मान रही है। पता नहीं क्यों, कांग्रेस इतनी अपरिपक्व कैसे हो गयी, जिस शरद पवार ने उन्हें एक नहीं, अनेक अवसरों पर धता बताई, उन पर इतना बड़ा भरोसा कर लिया? इस तरह की कुछ बातें है जो कांग्रेस को लगातार कमजोर करती रही हैं, महाराष्ट्र के ताजा मसले में असली हार कांग्रेस की ही हुई है।

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पिछले लम्बे समय से महाराष्ट्र में जिस तरह के राजनीतिक समीकरण बन और बिगड़ रहे थे, वह माहौल लोकतंत्र की स्वस्थता की दृष्टि से उचित नहीं था, वहां हर क्षण लोकतंत्र टूट-बिखर रहा था, लेकिन इन टूटती-बिखरती राजनीतिक स्थितियों के बीच एकाएक शांतिपूर्ण विस्फोट हुआ, जिस तरीके से महाराष्ट्र में राजनीतिक मौसम ने अचानक करवट बदली है, उसे राज्य की राजनीति में धक्का तंत्र के नाम से जाना जाता है और शरद पवार को इसमें महारत हासिल है। महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार पर यह पंक्तियां बेहद सटीक बैठती हैं, न काहू से दोस्ती न काहू से बैर। ऐसा इसलिए क्योंकि वो कब किससे मिलेंगे, किससे नहीं, यह कोई नहीं जानता है। इस धक्का तंत्र की शुरुआत 1978 में हुई थी, जब कांग्रेस नेता वसंतदादा पाटिल राज्य के मुख्यमंत्री थे। उस समय 38 वर्ष के पवार ने कांग्रेस के ही कुछ विधायकों के साथ मिलकर पार्टी से विद्रोह कर दिया था और अपना एक अलग गुट बना लिया था। इस गुट का नाम प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट (पुलोदा) रखा गया था। कहा जाता है कि पवार ने उस समय पाटिल को धोखा देकर उनकी सरकार को खतरे में डाल दिया था। शुक्रवार की रात्रि में एक बार फिर उन्होंने ऐसी ही अनहोनी कर दिखाया। कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने सबसे पहले प्रतिक्रिया देते हुआ कहा, ‘महाराष्ट्र के बारे में पढ़कर हैरान हूं। पहले लगा कि यह फर्जी खबर है। निजी तौर पर बोल रहा हूं कि तीनों पार्टियों की बातचीत 3 दिन से ज्यादा नहीं चलनी चाहिए थी। यह बहुत लंबी चली। मौका दिया गया तो फायदा उठाने वालों ने इसे तुरंत लपक लिया। इसके बाद सिंघवी ने शरद पवार पर तंज कसते हुए कहा, ‘पवार जी तुस्सी ग्रेट हो। अगर यह सही है तो मैं हैरान हूं।’ सचमुच जहां दोष एवं दुश्मन दिखाई देते हैं वहां संघर्ष आसान है। जहां ये अदृश्य है, वहां लड़ाई मुश्किल होती है। ऐसा ही महाराष्ट्र में कांग्रेस के साथ हुआ है। सचमुच महाराष्ट्र का रातोरात बदला राजनीतिक परिदृश्य हैरान करने वाला है। क्योंकि इन परिदृश्यों में कुछ भी जायज नहीं कहा जा सकता। असल में राजनीति में वैसे भी कुछ भी नैतिक एवं जायज होता ही कहा है।
 
अपने फैसलों से लगातार चैंकाती रही नरेंद्र मोदी सरकार ने महाराष्ट्र पर आज के अपने फैसले से विपक्षी दलों समेत हर किसी को हैरान कर दिया। तीनों सरकार बनाने वाले दलों, अन्य विपक्षी दलों, मीडिया भी स्वीकार कर रहे हैं कि उन्होंने इस ‘चैके’ की उम्मीद तो कतई नहीं की थी। अब भले ही सभी विपक्षी दल इसे लोकतंत्र के लिये काला धब्बा बताये या लोकतंत्र की हत्या? स्वयं को राजनीतिक धुरंधर मानने वाले भी बौने हो गये? कुछ तो है मोदी में करिश्मा या जादूई चमत्कार सरीका कि वे लगातार अनूठा एवं विलक्षण करके विस्मित करते हैं। उनके इस नये राजनीतिक तेवर पर भले ही प्रश्न खड़े किये जा रहे हो, लेकिन प्रश्न तो शिवसेना पर भी हैं कि उसने 30 साल पुरानी दोस्ती क्यों तोड़ी? जनता पूछ रही थी कि जब हमने आपको जनादेश दिया तो सरकार क्यो नहीं बना पाये? एक प्रश्न यह भी है कि  शिवसेना इतनी जल्दी बाला साहेब के सिद्धांतों को कैसे भूल गयी?  
 
संजय निरुपम का यह कहना कि कांग्रेस की शिवसेना के साथ गठबंधन की सोच एक गलती थी।’ सचमुच दो कट्टर विरोधी पार्टियों के बीच गठबंधन क्यों एवं कैसे स्वीकार्य हुआ। जनता ने तो इस तरह के गठबंधन के लिये अपने वोट नहीं दिये थे? यह तो जनता के मतों की अवहेलना एवं अपमान है। भले ही शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे इसे लोकतंत्र के नाम पर खेल बता रहे हो। लेकिन उन्होंने सत्तामद में जो किया, वह भी लोकतंत्र का खेल एवं मखौल ही था। महाराष्ट्र में जो कुछ हुआ, उसे मूल्यहीन एचं दिशाहीन ही कहा जा सकता है।

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महाराष्ट्र में लोकतंत्र इतना काला हो जायेगा, या सत्तालोभी उसे इतना प्रदूषित कर देंगे, किसी ने नहीं सोचा। मैं और कुछ भी कह कर ”लोकतंत्र“ की महत्ता को कम नहीं कर रहा हूं, पर ”लोकतंत्र“ हमारी राजनीतिक संस्कृति है, सभ्यता है, विरासत है। यह भी मानता हूं कि कुछ राजनीतिक स्थितियां शाश्वत हैं कि जैसे कहीं उजाला होगा तो कहीं अंधेरा होगा ही। कहीं धूप होगी तो कहीं छाया का होना अनिवार्य है। किसी को फायदा तो किसी को नुकसान होना ही है। पर अनुपात का संतुलन बना रहे। सभी कुछ काला न पड़े। जो दिखता है वह मिटने वाला है। लेकिन जो नहीं दिखता वह शाश्वत है। शाश्वत शुद्ध रहे, प्रदूषित न रहे। किसी व्यक्ति के बारे में सबसे बड़ी बात जो कही जा सकती है, वह यह है कि ”उसने अपने चरित्र पर कालिख नहीं लगने दी।“ अपने जीवन दीप को दोनों हाथों से सुरक्षित रखकर प्रज्वलित रखना होता है। लेकिन राजनीति में ऐसे लोगों का होना एवं ऐसी घटनाओं का श्रृंखलाबद्ध बढ़ना कब प्रारंभ होगा। क्या हमें किसी चाणक्य के पैदा होने तक इन्तजार करना पड़ेगा, जो जड़ों में मठ्ठा डाल सके। नहीं, अब तो प्रत्येक मन को चाणक्य बनना होगा।
 
राजनीतिक प्रदूषण एवं अनैतिकता से ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। क्षण-क्षण अग्नि-परीक्षा देता है। पर हां ! अग्नि परीक्षा से कोई अपने शरीर पर फूस लपेट कर नहीं निकल सकता। महाराष्ट्र जैसे प्रदूषित घटनाक्रमों से भारतीय लोकतंत्र को निजात मिले, यह जरूरी है। फिर भले सत्ता पर कोई देवेंद्र फडणवीस बैठे या ठाकरे? लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलनी ही चाहिए।
 
- ललित गर्ग

अजय बोकिल
 

 आज जबकि भारत में मीडिया में भक्तिकाल का स्वर्णिम युग चल रहा हो और जम्मू कश्मीर जैसे संवेदनशील राज्य में प्रेस स्वतंत्रता कायम रखने की मीडिया संगठनों की मांग को बड़ी आसानी से दरकिनार कर दिया गया हो, उसी दौर में आॅस्ट्रेलिया में सरकार द्वारा मीडिया पर लगाम लगाने की कार्रवाई के विरोध में सभी अखबारों ने सोमवार ( 21 अक्टूबर ) को एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए अपने पहले पन्ने को काला कर के छापा. अखबारों के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया सरकार का सख़्त क़ानून उन्हें लोगों तक जानकारियां ला पाने से रोक रहा है. अखबारों के पहले पेज को काला रख कर विरोध जताने के पीछे इस साल जून में ऑस्ट्रेलिया के एक बड़े मीडिया समूह ऑस्ट्रेलियन ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन (एबीसी) के मुख्यालय और न्यूज कार्प आस्ट्रेलिया के एक पत्रकार के घर पर छापे मारी की  घटना है.

इस कार्रवाई ने वहां समूचे प्रेस जगत को रोष से भर दिया है. सरकारी एजेंसियों ने ये छापे  व्हिसलब्लोअर्स के जरिए लीक हुई जानकारियों के आधार पर कुछ लेखों के प्रकाशन के बाद मारे गए थे. सरकार इन लेखों से बौखला गई थी. प्रेस के  इस विरोध प्रदर्शन को राइट टू नो कोएलिशन  नाम दिया गया है, जिसका प्रिंट मीडिया के अलावा कई टीवी, रेडियो और आनलाइन समूह भी समर्थन कर रहे हैं. यह अभियान चलाने वालों का कहना है कि पिछले दो दशकों में आस्ट्रेलिया में ऐसे सख्‍त कानून लागू किए गए हैं, जिससे खोजी पत्रकारिता को खतरा पहुंच रहा है. मीडिया और व्हिसलब्लोअर्स को संवेदनशील मामलों की रिपोर्टिंग करना कठिन होता जा रहा है. खास बात है कि एक मीडिया हाउस की आवाज दबाने के खिलाफ वहां सारे अखबार एकजुट हो गए हैं. सोमवार को प्रकाशित अखबारों के पहले पन्ने पर छपे सारे शब्दों को काली स्याही से पोत दिया गया और लाल मुहर लगाई गई, जिस पर लिखा था-सीक्रेट. ऐसा करने वालों में  आॅस्ट्रेलिया के नामी अखबार द आॅस्ट्रेलियन, द डेली एक्जामिनर,  द एडवर्टायजर, डेली मरकरी आदि शामिल हैं. इन अखबारों का कहना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानूनों की आड़ में सही रिपोर्टिंग पर अंकुश लगाया जा रहा है और देश में एक गोपनीयता की संस्कृति बन गई है. इस बारे में आस्ट्रेलिया सरकार की दलील वही है, जो किसी भी सरकार की हो सकती है. सरकार के मुताबिक वह प्रेस की आजादी की समर्थक है, लेकिन कानून से बड़ा कोई नहीं है.
सीधे तौर पर कहें तो मीडिया की मुश्कें कसने की आस्ट्रेलिया सरकार की इस कोशिश को अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला माना जा रहा है. कुछ अखबारों ने सवाल उठाए- पत्रकारों और व्हिलसब्लोअर्स पर हमला: क्या आस्ट्रेलिया में ऐसा संभव था ? हां, लेकिन अब यह हो रहा है. क्योंकि सरकार सच को छुपाना चाहती है. उधर देश के कई जाने माने पत्रकारों ने एक सार्वजनिक चिट्ठी जारी कर कहा कि असहज करने वाले सच को उजागर करने वाली खोजी पत्रकारिता के बगैर स्वस्थ लोकतंत्र काम नहीं  कर सकता. जनता को सच जानने का पूरा  अधिकार है.  
गौरतलब है कि आस्ट्रेलिया में प्रेस की स्वतंत्रता की कोई सुस्पष्ट संवैधानिक गारंटी भले न हो, लेकिन उसकी आजादी का मोटे तौर सम्मान किया जाता रहा है. लेकिन अमेरिका में वर्ष 2001 में हुए 9/11 के हमले के बाद आॅस्ट्रेलिया में 70 आतंकरोधी और सुरक्षा से जुड़े कानून लागू किए गए. इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून कहा गया. ये सभी मीडिया की आजादी को नियंत्रित करने वाले थे. माना जाता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर इतने ज्यादा और कड़े कानून व   प्रतिबंध और किसी भी देश में नहीं है. इन कानूनों के दायरे में तकरीबन सभी पत्रकार आ गए तथा इन कानूनों के तहत खुफिया एजेंसियों तथा पुलिस को किसी भी पत्रकार के सपंर्कों को मानीटर करने का अधिकार मिल गया. साथ ही ऐसे कानून की जद में आने पर खुद को निर्दोष साबित करने की जिम्मेदारी भी सम्बन्धित पत्रकार की है. मानहानि कानून भी इतना कठोर बनाया गया है कि किसी के भी खिलाफ छापना खतरे से खाली नहीं है. वैसे भी अन्य यूरोपीय देशों तथा अमेरिका की तुलना में आॅस्ट्रेलिया में प्रेस की आजादी की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. इस लिहाज से अंतरराष्ट्रीय संस्था रिपोर्टर्स विदाउट बार्डर्स  की पिछले साल  की ‍िरपोर्ट में 128 देशों  की सूची में आस्ट्रेलिया का नंबर 21 वां था. ( यह बात अलग है कि इस सूची में भारत 140 वे नंबर पर है. यानी  पाकिस्तान से दो पायदान ऊपर). दुनिया में प्रेस की आजादी  की संवैधानिक गारंटी यूरोप के स्केंडेनेवियाई देशो में है. सबसे पहले स्वीडिश संसद ने 1766 में एक कानून पास कर देश में  प्रेस और सूचना की स्वतंत्रता कायम रखने की गारंटी दी थी. ये तब की बात है, जब भारत में मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय का शासन था.  
बेशक अभिव्यक्ति की आजादी का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए. भारत में भी मीडिया ट्रायल, निजता के सम्मान तथा सुरक्षा से जुडी संवेदनशील जानकारियां उजागर करने के कुछ मामले सामने आते रहे हैं. ऐसी प्रवृत्ति को नियंत्रित भी किया जाना चाहिए, लेकिन इसकी आड़ में मीडिया का मुंह बंद करने की कोई भी कोशिश अस्वीकार्य होनी चाहिए. भारतीय संविधान ने अनुच्छेद 19 के तहत हमे अभिव्यक्ति की आजादी दी हुई है. हालांकि इसे भी खत्म करने की कोशिशें भी होती रही हैं. तीस साल पहले पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार द्वारा देश में प्रेस पर नियंत्रण का कानून लाने के प्रस्ताव का  प्रेस ने जबर्दस्त विरोध किया था, जिसे वापस ले लिया गया. लेकिन आज भारतीय मीडिया में वैसा दम, प्रतिबद्धता और एकजुटता दिखाई नहीं देती. वर्तमान सरकार ने तो मीडिया नियं‍त्रण के दूसरे और परोक्ष नुस्खे खोज लिए हैं. ऐसे में मीडिया के बड़े तबके ने आज सत्ता को हर संभव खुश करने के लिए चौबीसों घंटे ढोल-मंजीरे बजाने का हाथ में ले लिया है और खुद अपनी रीढ़ निकालकर किसी तहखाने में रख दी है. जबकि यह अडिग सचाई है कि सच को उजागर करने और सत्ताधीशों को मुश्किल में डालना कहीं से देश विरोधी न तो है और  न ही हो सकता है. दरअसल मीडिया और अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र के धड़कते रहने की जमानत है. इसे कायम रखने के लिए आॅस्ट्रेलियाई अखबारों के प्रथम पन्ने की काली इबारत में निहित बेदाग सत्य को गहराई से समझना चाहिए. अपनी स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए वहां की प्रेस ने जो एकजुटता और साहस दिखाया है, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है. क्योंकि ऐसी ताकत उन बुनियादी मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता से आती है, जो लोकतंत्र के आधार स्तम्भ हैं. बोलने और लिखने की आजादी उन में से एक है. हालांकि इस आजादी का उपयोग दुर्भावना से करना गलत है, लेकिन दुर्भावना  की भी अलग-अलग परिभाषाएं हैं. मूल बात जनता को अपनी बात निडरता से रखने की आजादी तथा ऐसी बात को सुनने सकने की सत्ताधीशों में हिम्मत और उदारभाव की दरकार है. आॅस्ट्रेलियाई मीडिया ने जता दिया है ‍‍‍कि उसका मुंह बंद करना और आंखों पर पट्टी बांध देना नामुमकिन है. सवाल यह है कि क्या भारतीय मीडिया भी इससे कुछ सबक लेगा या फिर इस अघोषित सरेंडर में  उसने अपनी खुद्दारी से भी समझौता कर लिया है?

अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी कही बात से साफ मुकर गया है। अपने आप को सही साबित करने के लिए उसके द्वारा शरीयत और सुप्रीम कोर्ट के फैसले, दोनों की गलत व्याख्या की जा रही है।

अपने आप को मुसलमानों का रहनुमा समझने का दंभ भरने वाला करीब 50 वर्ष पुराना 'ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड' (एआईएमपीएलबी) अपने आप को हमेशा सुर्खियों में बनाए रखने की कला में माहिर है। अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन दाखिल करने की बात कह कर उसने यह बात फिर साबित कर दी है। इससे पहले भी कई मौकों पर बोर्ड सुप्रीम कोर्ट के फैसले की मुखालफत कर चुका है। चाहे राजीव सरकार के समय मुस्लिम महिला शाहबानो को सुप्रीम कोर्ट द्वारा गुजारा भत्ता दिए जाने का फैसला रहा हो या फिर इंस्टेंट तीन तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट का फैसला, कट्टरपंथी सोच रखने वाले बोर्ड को कुछ भी रास नहीं आता है। वह हर मसले को शरीयत की चादर में छिपा देने को उतावला रहता है। समय के साथ बदल नहीं पाने और कट्टरपंथी सोच के चलते ही एआईएमपीएलबी से तमाम बुद्धिजीवी मुलसमान दूरी बनाने लगे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी संकुचित सोच के चलते विवादों में भी बना रहता है। एक समय बोर्ड को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का जेबी संगठन समझा जाता था। आज भी बोर्ड इसी लीक पर चलते हुए भाजपा और उसकी सरकारों की मुखालफत में लगा रहता है। बोर्ड का गठन जिन परिस्थितियों में हुआ था, उसे भी समझना जरूरी है।
 
70 के दशक के शुरूआती समय यानी 1971 की बात है। जब देश की राजनीति तेजी से करवट ले रही थी। इंदिराजी के लिए जहां एक तरफ जयप्रकाश जी के नेतृत्व में समाजवादियों की राजनीतिक चुनौती थी, वहीं वो कांग्रेस पार्टी के आंतरिक संकटों से भी जूझ रही थीं। इस दौरान न्यायपालिका से भी इंदिराजी के सम्बन्ध काफी तल्ख हो चुके थे। 1971 का लोकसभा चुनाव रायबरेली से हार जाने के बाद समाजवादी नेता राजनारायण ने इंदिराजी के खिलाफ मुकदमा ठोंक दिया था, जिसे वो 1975 में जीते भी थे और तभी इमरजेंसी भी लागू की गयी थी।

इसी दौरान 1973 में इजरायल−अरब झगड़े में इजरायल को अमेरिकी मदद के खिलाफ सऊदी अरब के नेतृत्व में तेल−निर्यातक देशों के संगठन ओपेक द्वारा तेल उत्पादन और निर्यात पर कड़े नियंत्रण लगाने से भीषण तेल−संकट पैदा हो गया था। तेल के दामों में तीन डॉलर प्रति बैरल से 12 डॉलर प्रति बैरल तक की वृद्धि एकदम से हुई थी। दुनिया में तेल का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश ईरान के शाह मोहम्मद रजा पहलवी अमेरिकी खेमे में था। उस समय भारत के अमेरिका से रिश्ते अच्छे नहीं थे। इन हालातों में तेल के लिए पाकिस्तान−परस्त कट्टरवादी मुल्क सऊदी अरब और उसके करीबी मुल्कों से किसी भी तरह तेल खरीदने को इंदिरा सरकार मजबूर थी। अंतरराष्ट्रीय−राष्ट्रीय कारणों से संकटग्रस्त इंदिरा सरकार आंतरिक अव्यवस्था और खराब अर्थव्यवस्था के कठिन दौर में थी। 1973 आते−आते भीषण मंहगाई से त्रस्त जनता द्वारा समूचे उत्तर भारत में व्यापक जनआंदोलन शुरू हो चुके थे। तब सियासत के तहत चौतरफा संकटों से घिरीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भारतीय मुस्लिम धार्मिक कट्टरपंथियों और उनके वैश्विक आका सऊदी अरब को प्रसन्न करने के लिए ही समाजसेवी संगठन एआईएमपीएलबी को इंदिरा सरकार की तरफ से इसके गठन और संरक्षण में पूरा योगदान दिया जाने लगा। इंदिरा ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सहारे नजदीक आ रहे अगले संसदीय चुनावों में समाजवादियों द्वारा खिसकाए जा रहे कांग्रेस के पुराने मुस्लिम वोट−बैंक के धर्मनेताओं को भी अपने पक्ष में साधना चाहती थीं और उन्होंने ऐसा किया भी।
 
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम महिलाओं के लिए तलाक के शरिया नियमों में किसी बदलाव का सदैव ही विरोध किया। 1978 में शाहबानो प्रकरण में मुस्लिम महिलाओं को गुजारा−भत्ता देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को शरिया−विरोधी बताकर बोर्ड ने मानने से इनकार कर दिया। बाद में 1984 में बहुमत पाकर राजीव गाँधी की कांग्रेसी सरकार ने उलेमाओं के दबाव में 1986 में संसद में कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को शरिया के अनुकूल पलट दिया था। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड सदैव से बच्चों को अनिर्वाय और मुफ्त शिक्षा का भी विरोधी रहा है, क्योंकि इसका मानना है कि मुस्लिम बच्चों को स्कूली शिक्षा अनिवार्य करने से उनकी मदरसा शिक्षा पर प्रभाव पड़ेगा। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बाल−विवाह का समर्थन करते हुए संविधान के बाल−विवाह निषेधक कानून का भी कड़ा विरोध करता है।
   
कहने को तो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के गठन का उद्देश्य शरिया कानूनों को संरक्षित करना और उनके आड़े आ रही कानूनी बाधाओं को दूर करना ही था, लेकिन यह मुल्क के मुसलमानों के स्वैच्छिक धार्मिक−निर्देशक और नियंत्रक की तरह कार्य करता है। इसने बाबरी मस्जिद प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले की तरह इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का भी पुरजोर विरोध किया था। बोर्ड द्वारा जयपुर साहित्य उत्सव में सलमान रुश्दी की वीडियो कांफ्रेंसिंग तक का इस्लाम पर खतरा बताकर कड़ा विरोध किया था। यही नहीं योग, सूर्य−नमस्कार और वैदिक साहित्य−संस्कृति का भी यह कहते हुए विरोध किया कि यह सब इस्लाम−विरोधी ब्राह्मण−धर्म लागू करने का षड्यंत्र हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तीन तलाक मामले पर सुप्रीम कोर्ट और मोदी सरकार के खिलाफ तलवारें निकाल लीं और तर्कहीन होने के कारण उसके द्वारा कहा जाने लगा कि तीन तलाक मामले को पेचीदा बनाने के लिए यूनिफॉर्म सिविल कोड लाने की साजिश की जा रही है।

यह सब बातें इसलिए बताई जा रही हैं जिससे बोर्ड का असली चेहरा समझा जा सके। अपने स्वभाव के अनुसार ही बोर्ड अयोध्या विवाद को सुलझने नहीं देना चाहता है। उसकी तरफ से बेबुनियाद तर्क दिए जा रहे हैं। इसीलिए पिटीशन दाखिल करने को लेकर बोर्ड दो धड़ों में बंट गया है। सुन्नी वक्फ बोर्ड की ओर से साफ कर दिया गया है कि वह रिव्यू के लिए कोर्ट नहीं जाएगा। शिया वक्फ बोर्ड ने भी ऐसा ही कहा है। यहां तक कि मुख्य पक्षकार इकबाल अंसारी भी सुप्रीम कोर्ट का फैसले के खिलाफ आगे नहीं जाना चाहते हैं। वहीं बोर्ड के अध्यक्ष धर्मगुरु मौलाना राबे हसनी नदवी चुप्पी साधे रहे। पर्सनल लॉ बोर्ड के भरोसेमंद सूत्रों ने बताया कि पूर्व सांसद मौलाना महमूद मदनी, पूर्व सांसद कमाल फारूकी, मौ. खालिद रशीद फरंगी महली सहित कई उलेमा का कहना था कि पर्सनल लॉ बोर्ड को अपने पुराने स्टैंड पर कायम रहना चाहिए और रिव्यू पिटीशन दायर नहीं करना चाहिए। मौ. फरंगी महली का कहना था कि हमने जनता से खासकर मुसलमानों से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बिना शर्त मानने और उस पर अमल करने का वादा किया है। इस्लाम में वादा खिलाफी बड़ा गुनाह है। वहीं 5 एकड़ जमीन लेने का भी मामला उठा तो मौ. फरंगी महली का कहना था कि जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड को दी गयी है। अगर बोर्ड इसको स्वीकार न करने की बात करेगा तो गलत मैसेज जाएगा। अगर सुन्नी वक्फ बोर्ड 26 नवम्बर को होने वाली अपनी बैठक में 5 एकड़ जमीन स्वीकार कर लेता है तो इसमें पर्सनल लॉ की बहुत फजीहत हो सकती है।
 
रिव्यू पिटीशन के पक्ष में खड़े लोगों की बात की जाए तो इसमें एआईएमआईएम सांसद असद उद्दीन ओवैसी, जफरयाब जीलानी और महासचिव मौ. वली रहमानी सरीखे लोग शामिल हैं। ओवैसी ने कहा कि यह सुप्रीम कोर्ट का फैसला नहीं है। हमने विवादित जमीन के मालिकाना हक के लिए टाइटिल सूट दाखिल किया था। हम इसे निर्णय नहीं कह सकते। फैसले के खिलाफ रिव्यू पिटीशन दाखिल करना हमारा संवैधानिक अधिकार है। इसी तरह की बात जफरयाब जीलानी व मौ. रहमानी भी कर रहे हैं।
 
रिव्यू पिटीशन दायर करने के फैसले के बाद ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड पर वादाखिलाफी और अपनी प्रतिबद्धता से मुकरने का इल्जाम लग रहा है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट द्वारा मामले का हल बातचीत से निकालने से लेकर फैसला आने के बाद तक पर्सनल लॉ बोर्ड के सभी पदाधिकारी देश के मुसलमानों से यह कह अपील कर रहे थे कि वह बिना शर्त सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानेंगे। बोर्ड का यह भी कहना था कि इस्लाम धर्म में सिर्फ मस्जिद की ही अहमियत नहीं है, बल्कि अपनी कही बात पर कायम रहने की भी बड़ी अहमियत है। लेकिन फैसला आने के बाद पर्सनल लॉ बोर्ड अपनी कही बात से साफ मुकर गया है। अपने आप को सही साबित करने के लिए उसके द्वारा शरीयत और सुप्रीम कोर्ट के फैसले, दोनों की गलत व्याख्या की जा रही है। बोर्ड फिर से उन्हीं बिन्दुओं को उठा रहा है, जिसे सुप्रीम कोर्ट में वह साबित नहीं कर पाया था। पर्सनल लॉ बोर्ड इस बात को छिपा रहा है कि तमाम मुस्लिम देशों में विकास के काम में बाधा आने वाली मस्जिदों को हटा दिया जाता है। यहां तक कि कुरान में मस्जिद को वैसी मान्यता नहीं मिली है जैसी मंदिर को हिन्दू धर्म में मिली हुई है। जहां तक बात विवादित ढांचा गिराए जाने की है तो उसके दोषियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चल रहा है। लालकृष्ण आडवाणी और कल्याण सिंह जैसे तमाम नेताओं को आरोपी बनाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुरातत्व विभाग की रिपोर्ट के आधार पर यह बात जरूर कही है कि इस बात के सबूत नहीं हैं कि मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, लेकिन खुदाई में जो चीजें निकलीं वह यह साबित करने के लिए पर्याप्त थीं कि वहां मंदिर ही था।
 
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी यह बात समझता है, इसीलिए एक तरफ रिव्यू पिटीशन की बात की जा रही है तो दूसरी तरफ यह दावा भी किया जा रहा है कि उनकी पिटीशन सौ प्रतिशत खारिज हो जाएगी। लब्बोलुआब यह है कि हमेशा की तरह बोर्ड न्यायपालिका के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगाने की आदत से बाज नहीं आ रहा है। वह एक बार फिर झूठ की बुनियाद पर अपनी 'इमारत' मजबूत करने का सपना देख रहा है। यह सब वह किसके इशारे पर कर रहा है, इसे भी समझना जरूरी है।
 
-अजय कुमार
 

न्यायालय के इस निर्णय वाले दिन 9 नवंबर, 2019 को देश का धार्मिक स्वतंत्रता दिवस इसलिए कहना उचित होगा क्योंकि मंदिर पर बना बाबरी ढांचा एक विदेशी हमलावर की जिद्द, अहंकार, नृशंसता का प्रतीक था।

कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण का विराट रूप देख जैसे अर्जुन की आंखें चुंधिया गईं, जिव्हा निशब्द और हाथ-पांव शिथिल पड़ गए। लगभग वही स्थिति अयोध्या में श्रीराम मंदिर पर आया फैसला सुन मेरी हो रही है। मानो शब्दकोष सूख गया, मस्तिष्क और शरीर में कोई तालमेल नहीं बचा। सुन्न स्मृति में केवल शेष रह गए गोस्वामी तुलसीदास जिनके शब्दों की अंगुली थामे उन हुतात्माओं को नमन व्यक्त करना चाहता हूं जिन्होंने किसी भी रूप में देश के इस धार्मिक स्वतंत्रता आंदोलन रूपी यज्ञ में आहूति डाली। भक्तों का भगवान से कैसा संबंध है और भगवान किस भांति अपने दासों का आभार व्यक्त करते हैं, यह उन्हीं के शब्दों में व्यक्त करने की चेष्टा है। तुलसीकृत श्रीरामचरितमानस में सिंहासनरोहण के समय श्रीराम अपने सहयोगियों से कहते हैं-

तुम्ह अति कीन्हि मोरि सेवकाई।
मुख पर केहि बिधि करौं बड़ाई।।
ताते मोहि तुम्ह अति प्रिय लागे।
मम हित लागि भवन सुख त्यागे।।
अनुज राज संपति बैदेही।
देह गेह परिवार सनेही।।
सब मम प्रिय नहिं तुम्हहिं समाना।
मृषा न कहउँ मोर यह बाना।।
 
अर्थात्- राजतिलक के समय अयोध्या आए सुग्रीव, अंगद, हनुमान, नल-नील, जाम्वंत, विभिषण, केवट सहित सभी वानर व दैत्य नरेशों को अपने पास बैठा कर श्रीराम कहते हैं कि तुम लोगों ने मेरी बड़ी सेवा की। मेरे लिए अपने घर, राज सिंहासन के सुख त्याग दिए। मुझे अपने छोटे भाई, परिवार, राज्य, सम्पत्ति, जानकी, अपना शरीर, मित्र सभी प्रिय हैं परंतु तुम्हारे समान नहीं अर्थात् रामभक्त राम को परिजनों से अधिक प्रिय लगे।
 
न तो मेरी इतनी स्मृति शेष है और न ही समुचित इतिहास ज्ञान कि राम मंदिर स्वतंत्रता आंदोलन में काम आए लोगों के नाम बता सकूं। यह लगभग सरजू के रजकण गिनने जितना दुरुह है। लेकिन अल्पज्ञान के अनुसार उन लोगों को अवश्य श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहता हूं जो रामकाज में काम आए। मुस्लिम आक्रमणकारी सालार मसूद ने साकेत अर्थात् अयोध्या पर हमला कर मंदिर को ध्वस्त कर दिया। उसके वापस जाते समय 14 जून, 1033 को वीर राजा सुहेलदेव ने मसूद सहित उसकी सेना का इतना बेरहमी से संहार किया कि एक सदी तक कोई भी मुस्लिम हमलावर भारत की तरफ मुंह करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। गढ़वाल वंशीय राजाओं ने पुन: राममंदिर का निर्माण करवाया। 1528 में बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मंदिर विध्वंस किया। हिंदू समाज ने इसका इतना भयंकर प्रतिकार किया कि वह पूरी मस्जिद नहीं बनवा पाया केवल ढांचा खड़ा कर सिर पर पांव रख कर भागने को मजबूर हुआ। इस संघर्ष में हजारों हिंदू शहीद हुए। इसी तरह बाबर के समय भीटी नरेश महताब सिंह, हंसबर के राजगुरु देवीदीन पाण्डेय, राजा रणविजय सिंह, रानी जयराजकुमारी, हुमायूँ के समय साधुओं की सेना के साथ स्वामी महेशानंद जी, अकबर के समय स्वामी बलरामाचार्य जी, औरंगजेब के समय बाबा वैष्णवदास, कुंवर गोपाल सिंह, ठाकुर जगदम्बा सिंह, ठाकुर गजराज सिंह, नवाब सआदत अली के समय अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह, पिपरा के राजकुमार सिंह, नासिरुद्दीन हैदर के समय मकरही के राजा, वाजिदअली शाह के समय बाबा उद्धवदास जी तथा श्रीरामचरण दास, गोण्डा नरेश देवी बख्श सिंह, साधू समाज, स्वतंत्रता के उपरांत हुए संघर्ष के आंदोलनकारी, इसमें लगे संगठन, क्रूर मुलायम सिंह यादव सरकार के हाथों शहीद हुए कारसेवक, सभी पक्षकार, शुभचिंतक आज श्रीराम के अतिप्रिय लोगों में शामिल हैं। लाखों हिंदुओं ने मंदिर के लिए न केवल अपने प्राणों का त्याग किया बल्कि घर-बार, परिवार, मित्र, घर के सुखों का त्याग किया।
 
न्यायालय के इस निर्णय वाले दिन 9 नवंबर, 2019 को देश का धार्मिक स्वतंत्रता दिवस इसलिए कहना उचित होगा क्योंकि मंदिर पर बना बाबरी ढांचा एक विदेशी हमलावर की जिद्द, अहंकार, नृशंसता का प्रतीक था। देशवासियों ने जहां शूरवीरता से इसका पराभाव किया वहीं विधि व्यवस्था ने हिंदुओं के पक्ष को न्यायसंगत ठहराया। अब निर्णय आ चुका है और पूरे संघर्ष के दौरान पैदा हुई कटुता, विवादों, विरोध भाव का भी निस्तारण होना चाहिए। मंदिर निर्माण सद्भाव, परस्पर प्रेम, शांति, स्नेह की नींव पर हो।

सब नर करहिं परस्पर प्रीती।
चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति।।
 
देशवासी परस्पर प्रीत करें, अपने-अपने धर्म अर्थात कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए नियत विधि अनुसार जीवन यापन करें। समाज भविष्योन्मुखी हो राष्ट्रनिर्माण में जुटे। राममंदिर बनने को है और अब अगला आंदोलन पूरे राष्ट्र व विश्व को मंदिर स्वरूप बनाने का चलना चाहिए। इन्हीं शब्दों के साथ सबको राम राम।
 
-राकेश सैन

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