ईश्वर दुबे
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Bhilai
अप्रवासी भारतीय न केवल अपने देशों के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं बल्कि वे भारत के आर्थिक विकास में भी अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। पिछले वर्ष अप्रवासी भारतीयों ने लगभग 6.5 लाख करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा भारत में भेजी है।
आज पूरे विश्व में 3.2 करोड़ से अधिक अप्रवासी भारतीय निवास कर रहे हैं। करीब 25 लाख भारतीय प्रतिवर्ष भारत से अन्य देशों में प्रवास के लिए चले जाते हैं। विदेश में बस रहे भारतीयों ने भारतीय संस्कृति का झंडा बुलंद करते हुए भारत की साख को न केवल मजबूत किया है बल्कि इसे बहुत विश्वसनीय भी बना दिया है। अप्रवासी भारतीयों ने अपनी कार्यशैली से अन्य देशों में स्वयं को तो स्थापित किया ही है, साथ ही इन देशों में अपने लिए कई अनगिनित उपलब्धियां भी अर्जित की हैं। इन देशों में निवास कर रहे अप्रवासी भारतीय वहां के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में अपनी भागीदारी भी बढ़ाते जा रहे हैं।
तीन विभिन्न कालखंडों में भारतीय विभिन्न देशों में प्रवास पर भेजे गए थे अथवा वे स्वयं गए थे। सबसे पहले तो भारत पर अंग्रेजों के शासनकाल के दौरान लाखों की संख्या में भारतीय, श्रमिकों के तौर पर, ब्रिटिश कालोनियों (ब्रिटेन द्वारा शासित देशों) में भेजे गए थे। आज इन देशों में भारतीयों की आगे आने वाली पीढ़ियां बहुत प्रभावशाली बन गई हैं एवं इनमें से कुछ तो इन देशों में प्रधानमंत्री अथवा राष्ट्रपति के पदों तक पहुंच गए हैं। जैसे, मॉरिशस में भारतीय मूल के सर शिवसागर रामगुलाम मॉरिशस के प्रथम मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री एवं छठे गवर्नर-जनरल रहे हैं। आप सनातन हिन्दू धर्म के अनुयायी थे एवं हिन्दी भाषा के पक्षधर और मॉरिशस में भारतीय संस्कृति के पोषक रहे हैं। आपके कार्यकाल में मॉरिशस में हिन्दी के पठन-पाठन में बहुत उन्नति हुई। आगे चलकर भारतीय मूल के ही श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ भी मॉरिशस के प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति दोनों पदों पर रहे। दक्षिणी अमेरिका के गयाना देश में भारतीय मूल के श्री छेदी भरत जगन को देश के सबसे बड़े नेताओं में गिना जाता है। आपको वहां राष्ट्रपिता के रूप में देखा जाता है। आप ब्रिटिश गयाना के प्रधानमंत्री रहे एवं बाद में स्वतंत्र गयाना के राष्ट्रपति भी रहे। त्रिनिदाद एण्ड टोबैगो में भारतीय मूल की सुश्री कमला प्रसाद बिसेसर प्रधानमंत्री के पद को सुशोभित कर चुकीं हैं। इसी प्रकार भारतीय मूल के श्री महेंद्र पाल चौधरी भी फिजी में प्रधानमंत्री बने थे। भारतीय मूल के श्री वैवेल रामकलावन हिंद महासागर के द्वीपीय देश सेशेल्स के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए हैं। 43 वर्ष बाद सेशेल्स में विपक्ष का कोई नेता राष्ट्रपति निर्वाचित हुआ है। इसी प्रकार कोस्टा पुर्तगाल, सूरीनाम एवं पूर्वी अफ्रीका के देशों में भी भारतीय मूल के कई व्यक्ति इन देशों के उच्चत्तम पदों पर पहुंचे हैं।
वैसे विदेशी धरती पर श्री दादाभाई नौरोजी ब्रिटेन में भारतीय मूल के सम्भवतः पहले सांसद चुने गए थे। आप वर्ष 1892 के आम चुनाव में जीतकर संसद तक पहुंचे थे। श्री दादाभाई ने हाउस ऑफ कामन्स में भारतीयों की निर्धनता और अशिक्षा के लिए ब्रिटिश शासन को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था कि ब्रिटिश राज में रहने वाले भारतीयों की औसत आमदनी बीस रुपए प्रतिवर्ष से भी कम है।
भारत द्वारा अंग्रेजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, एक बड़ी संख्या में भारतीय अन्य देशों में जाकर अप्रवासी भारतीय के तौर पर बस गए थे। उस समय पर इनमें से एक बहुत बड़ा वर्ग किसी न किसी प्रकार की तकनीकी दक्षता जैसे कारीगर, पलंबर, इलेक्ट्रिशियन, आदि हासिल किए हुए था। इन लोगों को “ब्लू कोलर” रोजगार आसानी से उपलब्ध हो रहे थे और ये भारतीय एक बड़ी संख्या में अधिकतर सऊदी अरब, यूनाइटेड अरब अमीरात, कतर एवं अन्य मिडिल ईस्ट देशों में अप्रवासी भारतीय बनकर रहने लगे। उस समय पर इन देशों में अप्रवासी भारतीयों को छोटी-छोटी दुकानों पर भी रोजगार आसानी से उपलब्ध हो रहा था।
इसके बाद 1970 के दशक एवं इसके बाद के कालखंड में भारत से बुद्धिजीवी, प्रोफेशनल एवं पढ़े लिखे वर्ग के लोग भी अन्य देशों की ओर आकर्षित होने लगे एवं अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी, फ्रान्स, इटली आदि देशों में जाकर अप्रवासी भारतीय के रूप में बस गए। आज ये अप्रवासी भारतीय इन देशों में इंजीनीयर, डॉक्टर, प्रोफेसर, आदि अच्छे पदों पर कार्यरत हैं। इनमें से कई तो आज इन देशों की बड़ी बड़ी कम्पनियों में मुख्य कार्यपालन अधिकारी के रूप में भी बहुत सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं। अमेरिका एवं ब्रिटेन जैसे अन्य कई देशों में तो आज सबसे अधिक डॉक्टर एवं इंजीनीयर भारतीय मूल के लोग ही हैं एवं इन देशों के वित्तीय क्षेत्र में भी भारतीय मूल के लोग सबसे अधिक पाए जाते हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं को गति देने में इन अप्रवासी भारतीयों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। एक और महत्वपूर्ण क्षेत्र जिसमें आज भारतीय मूल के लोग इन देशों में लगातार बहुत सफल हो रहे हैं वह है राजनीति का क्षेत्र। अमेरिका में तो भारतीय मूल की श्रीमती कमला हैरिस ने प्रथम बार महिला के रूप में उप-राष्ट्रपति के पद पर चुनी जाकर वहां इतिहास रच दिया है। भारतीय मूल के ही श्री बॉबी जिंदल अमेरिका के लूसियाना प्रांत के गवर्नर रहे हैं। इसके पूर्व आप अमेरिकी राज्य लुईजियाना की प्रतिनिधि सभा के सदस्य भी रह चुके हैं। इसी प्रकार भारतीय मूल के ही श्री रिचर्ड राहुल वर्मा ने भारत-अमेरिका के बीच असैन्य परमाणु समझौते में अहम भूमिका निभाई थी। आप भारत और अमेरिका के बीच मजबूत संबंधों के हिमायती रहे हैं। वर्ष 2014 में आप भारत में अमेरिकी राजदूत के रूप में भी शपथ ले चुके हैं। भारतीय मूल की श्रीमती निकी हेली यूएनओ में अमेरिका की स्थायी राजदूत रह चुकी हैं एवं श्रीमती तुलसी गबार्ड अपने हिन्दू होने पर गर्व की अभिव्यक्ति सार्वजनिक रूप से करती हैं एवं आप अमेरिका की राजनीति में बहुत सक्रिय रहकर राष्ट्रपति पद की दौड़ में भी शामिल रह चुकी हैं। इसी प्रकार कनाडा एवं ब्रिटेन में भी भारतीय मूल के कई व्यक्ति वहां की केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालयों (विदेश, वित्त, गृह, आदि) में मंत्री पद पर आसीन हो गए हैं। ब्रिटेन एवं अमेरिका में तो भारतीय मूल के व्यक्ति वहां का अगला प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति बनने की दौड़ में भी शामिल हो गए हैं।
भारतीय मूल के ही श्री देवन नायर सिंगापुर के राष्ट्रपति रह चुके हैं एवं आपने सिंगापुर में नेशनल ट्रेड यूनियन की स्थापना की थी। इसके बाद भारतीय मूल के ही श्री एसआर नाथन भी सिंगापुर के राष्ट्रपति रहे हैं। वर्ष 1999 से 2011 तक के खंडकाल में आप इस पद पर बने रहे थे।
अप्रवासी भारतीय न केवल अपने देशों के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं बल्कि वे भारत के आर्थिक विकास में भी अपनी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। पिछले वर्ष अप्रवासी भारतीयों ने लगभग 6.5 लाख करोड़ रुपए की विदेशी मुद्रा भारत में भेजी है। पूरे विश्व में अप्रवासी भारतीय सबसे अधिक विदेशी मुद्रा भारत में भेज रहे हैं। अप्रवासी भारतीयों का भारत की विभिन्न कम्पनियों में विदेशी निवेश भी बहुत तेज गति से बढ़ रहा है। इसका अच्छा प्रभाव यह भी देखने में आ रहा है कि अप्रवासी भारतीयों के देखादेखी इन देशों के मूल निवासी भी भारत में अपने विदेशी निवेश को बढ़ा रहे हैं जिसके चलते भारत में कुल विदेशी निवेश द्रुत गति से बढ़ रहा है। इन विभिन्न देशों में अप्रवासी भारतीय, भारत एवं इन देशों के बीच विदेशी व्यापार एवं विदेशी निवेश के मामले में एक सेतु का कार्य कर रहे हैं। भारतीय मूल के लोग इन देशों के कई संस्थानों से भी जुड़े हुए हैं एवं इन संस्थानों को भारत के प्रति नरम रुख अपनाने की प्रेरणा भी देते रहते हैं।
विशेष रूप से वर्ष 2014 के बाद एक बड़ा बदलाव भी देखने में आ रहा है। वह यह कि अब भारतीय मूल के लोग इन देशों में भारत की आवाज बन रहे हैं इससे इन देशों में भारत की छवि में लगातार सुधार दृष्टिगोचर है। पूर्व के खंडकाल में भारत की पहचान एक गरीब एवं लाचार देश के रूप में होती थी। परंतु, आज स्थिति एकदम बदल गई है एवं अब भारत को इन देशों में एक सम्पन्न एवं सशक्त राष्ट्र के रूप में देखा जा रहा है। हाल ही के समय में अन्य देशों में भारतीयों की विश्वसनीयता एवं साख भी बहुत बढ़ी है क्योंकि विशेष रूप से वर्ष 2014 के बाद से भारत की राजनीति बहुत संतुलित एवं स्थिर रही है एवं भारत में किसी भी प्रकार का घोटाला नहीं हुआ है। भारत में ईज ओफ डूइंग बिजनेस के क्षेत्र में बहुत सुधार हुआ है, ब्रिटिश राज के समय के कई पुराने कानून समाप्त कर दिए गए हैं, वीजा प्रदान करने सम्बंधी नियमों को शिथिल कर दिया गया है। इस सबका असर यह हुआ है कि विदेशों में आज अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारतीयों की आवाज को गम्भीरता पूर्वक सुना जा रहा है एवं इन देशों में बसे भारतीय भी अब अपनी भूमिका प्रभावशाली तरीके से निभाने लगे हैं। भारतीय संस्कृति की विचारधारा का अप्रवासी भारतीय आज सही तरीके से प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
अप्रवासी भारतीयों की भारत के विकास में एक महत्वपूर्ण भूमिका है। अतः प्रतिवर्ष 9 जनवरी को अप्रवासी भारतीय दिवस मनाया जाता है। अप्रवासी दिवस पर उन भारतीयों को सम्मानित किया जाता है जिन्होंने अपने-अपने क्षेत्र में विदेश में विशेष उपलब्धियां हासिल कर भारत का नाम रोशन किया है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
बीजेपी की नजर अल्पसंख्यकों के इतर बहुसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण और छोटे जाति समूहों को साध कर जीत की राह आसान करने की है। भाजपा अपने इसी पुराने दांव से एक बार फिर से पश्चिम यूपी में जीत का सिलसिला जारी रखना चाहती है।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के प्रथम दो चरण का चुनाव प्रदेश की भावी सियासत एवं भारतीय जनता पार्टी-समाजवादी पार्टी सहित तमाम दलों और उनके ‘आकाओं’ के लिए भी काफी महत्त्व वाला माना जा रहा है। प्रथम दो चरणों की जंग पश्चिमी यूपी और रूहेलखंड के कुछ हिस्सों में लड़ी जाएगी। यह वही इलाका है जहां नये कृषि कानून के खिलाफ काफी तीखा साल भर तक चलने वाला किसान आंदोलन देखने को मिला था। हालांकि किसान आंदोलन खत्म हो गया है, लेकिन अटकलों का दौर जारी है। यहां विपक्ष को लगता है कि बीजेपी से किसानों की नाराजगी उनकी झोली वोटों से भर देगी। 2017 के विधानसभा चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नतीजों ने प्रदेश में बीजेपी सरकार के लिए राह बनाई थी। तब पश्चिमी यूपी में 26 जिलों की 136 विधानसभा सीटें जिसमें मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, बरेली, आगरा समेत कई जिले आते हैं उसमें 136 सीटों में से 109 सीटें बीजेपी के खाते में आई थीं। पश्चिमी यूपी में 20 फीसदी के करीब जाट और 30 से 40 फीसदी मुस्लिम आबादी है। इन दोनों समुदायों के साथ आने से करीब 50 से ज्यादा सीटों पर जीत लगभग तय हो जाती है। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी को रिकॉर्ड 136 में से 109 सीट मिली थीं जबकि अखिलेश यादव के हिस्से में 20 सीटें ही आई थीं। अबकी से पश्चिमी यूपी में पैर जमाने के लिए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने राष्ट्रीय लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ गठबंधन कर लिया है। यदि यहां बीजेपी का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो उसके लिए आगे के पांच चरणों की लड़ाई बहुत आसान हो जाएगी। पिछले तीन चुनावों में यहां बीजेपी का प्रदर्शन बहुत अच्छा रहा है, लेकिन इस बार साल भर से अधिक समय तक चले किसान आंदोलन और गन्ना मूल्य के भुगतान में देरी की वजह से किसान बीजेपी से नाराज बताए जा रहे हैं। यहां की बहुसंख्यक आबादी जाट और मुसलमानों के एकजुट होने से भी भाजपा की परेशानियां बढ़ी हुई हैं।
सपा-रालोद को लगता है कि जाट और मुसलमानों ने एक साथ वोट कर दिया तो पश्चिम उत्तर प्रदेश में बीते आठ वर्षों से जारी राजनीति की नई इबारत लिखी जाएगी और भाजपा सत्ता से बाहर हो सकती है। इसीलिए भाजपा लगातार यह कोशिश कर रही है कि सपा-रालोद के अरमानों पर कैसे पानी फेरा जाए। बीजेपी की नजर अल्पसंख्यकों के इतर बहुसंख्यक वोटों का ध्रुवीकरण और छोटे जाति समूहों को साध कर जीत की राह आसान करने की है। भाजपा अपने इसी पुराने दांव से एक बार फिर से पश्चिम यूपी में जीत का सिलसिला जारी रखना चाहती है।
गौरतलब है कि करीब 70 फीसदी हिस्सेदारी के कारण आजादी से लेकर साल 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले तक इस क्षेत्र की राजनीति जाट, मुस्लिम और दलित जातियों के इर्द-गिर्द घूमती रही थी। हालांकि साल 2014 में भाजपा ने नए समीकरणों के सहारे राजनीति की नई इबारत लिखी। पार्टी न सिर्फ अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ बहुसंख्यकों का समानांतर ध्रुवीकरण कराने में कामयाब रही, साथ ही दलितों में सबसे प्रभावी जाटव बिरादरी के खिलाफ अन्य दलित जातियों का समानांतर ध्रुवीकरण कराने में भी सफल रही थी। इसलिए अबकी से भी भाजपा ने पिछड़ों और दलितों पर बड़ा दांव चला है। पार्टी ने पश्चिम उत्तर प्रदेश में अब तक 108 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए हैं। इनमें 64 टिकट ओबीसी और दलित बिरादरी को दिये गये हैं। दरअसल इसके जरिए भाजपा पहले की तरह गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को साधे रखना चाहती है। इसलिए पार्टी ने कई टिकट गुर्जर, सैनी, कहार-कश्यप, वाल्मिकी बिरादरी को दिये हैं। सैनी बिरादरी 10 तो गुर्जर बिरादरी दो दर्जन सीटों पर प्रभावी संख्या में है। कहार-कश्यप जाति के मतदाताओं की संख्या 10 सीटों पर बेहद प्रभावी है।
पश्चिमी यूपी बीजेपी के लिए कितना महत्व रखता है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस क्षेत्र में बीते तीन चुनाव से चुनावी रणनीति की कमान वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह के हाथों में ही रहती है। यहां 2013 से पूर्व तक जाट और मुसलमान सामूहिक रूप से किसी भी पार्टी के मतदान करते थे। पर 2013 में सपा राज के समय मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगों के कारण जाट-मुस्लिम एकता पर ग्रहण लग चुका था। बीजेपी ने इसका पूरा फायदा उठाया और चौथी बार भी अमित शाह ने अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत कैराना से की। इसी क्षेत्र के कैराना से हिंदुओं के पलायन के मुद्दे को भाजपा ने जोर-शोर से उठा कर पिछले तीन चुनावों में बहुसंख्यक मतों का सफलतापूर्वक ध्रुवीकरण कराया था। बीते लगातार तीन चुनाव में यहां बीजेपी की जीत की वजह जाट वोटरों का बीजेपी के साथ आना तो है ही इसके अलावा बीजेपी की बड़ी जीत हासिल करने की एक बड़ी वजह भाजपा की दलितों-मुसलमानों-जाटों के इतर अन्य छोटी जातियों के बीच पैठ बनाना भी रही थी। इस क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में कश्यप, वाल्मिकी, ब्राह्मण, त्यागी, सैनी, गुर्जर, राजपूत बिरादरी की संख्या जीत-हार में निर्णायक भूमिका रहती है। भाजपा ने करीब 30 फीसदी वोटर वाली इस बिरादरी को अपने पक्ष में गोलबंद कर भी लिया है इसलिए माना जा रहा है कि चुनाव परिणाम चौंकाने वाले होंगे।
-अजय कुमार
सत्ता में बैठकर अपने समर्थकों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना, जनता की गाढ़ी कमाई से उन्हें लाखों रुपए के पुरस्कार देना, अपराधी और भ्रष्टाचारी होने पर भी उनके विरुद्ध न्यायिक-प्रक्रिया को टालना लोकतंत्र के वटवृक्ष की जड़ें खोखली करना है।
पश्चिमी देशों की तथाकथित आधुनिकता ने बीसवीं शताब्दी में सारे विश्व को दूर तक प्रभावित किया और समाज की शासन-व्यवस्था के लिए राजतंत्र के स्थान पर लोकतंत्र का नया विचार दिया। यद्यपि भारत सहित अनेक देशों में गणतांत्रिक व्यवस्था प्राचीन एवं मध्यकालीन राज्यों में भी सफलतापूर्वक संचालित होती रही है, महाराष्ट्र में अष्टप्रधान का व्यवस्थापन इसी जनतांत्रिक शक्ति का भिन्न स्वरूप प्रकट करता है किंतु संपूर्ण देश में निर्वाचन के माध्यम से राजनीतिक दलों की आंतरिक संरचना और संपूर्ण राष्ट्र की व्यापक व्यवस्था का नया लोकतांत्रिक स्वरूप निश्चय ही पश्चिम के आधुनिक चिंतन की देन है।
ब्रिटिश दासता का शिकार रहे विश्व के अनेक देशों ने उसके उपनिवेशवाद से मुक्ति पाने पर उसके द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक व्यवस्था के स्वरूप को अपनी परिस्थितियों पर विचार किए बिना स्वीकार कर लिया। यूरोप के ठंडे देशों के लिए उपयुक्त कंबल भारतवर्ष की गर्म जलवायु में भी आधुनिकता के नाम पर ओढ़ लिया गया और आज पसीने से तरबतर हो कर भी हमारे नेतागण उसे उतारने तथा भारतीय जनहित के अनुरूप उसे नया स्वरूप देने, परिवर्तित-परिष्कृत करने के लिए उद्यत नहीं हैं क्योंकि विगत सात दशकों से स्थापित लोकतंत्र के इसी आवरण में उन्हें अपनी राजतंत्रीय सामंतवादी दुरभिलाषाओं की पूर्ति सुरक्षित दिखाई देती है। वंशवाद, परिवारवाद और अपार भ्रष्टाचार करने के बाद भी राजनीति में सक्रिय रहना और पुनः सत्ता में आने का सपना साकार कर पाना इसी लोकतांत्रिक-व्यवस्था में संभव है, जहां विधायिका अपनी सुविधा के लिए कार्यपालिका पर दबाव बनाए रखती है और कभी-कभी न्यायपालिका का भी मनमाना उपयोग कर लेती है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में आपातकाल के अठारह महीने इस कड़वे सच के साक्षी हैं। आज का अनेक समूहों में बंटा, अशांत और परस्पर संघर्षरत भारत लोकतंत्र के खोल में पल रही सामंतवादी दूषित मानसिकता का ही दुष्परिणाम है।
लोकतंत्र निश्चय ही समाज के लिए अत्यंत उत्तम व्यवस्था है। यह राजतंत्र और सामंतवाद के अनेक दोषों से स्वतः मुक्त है और समाज के प्रत्येक व्यक्ति को विकास का अधिकतम अवसर देने का शुभ प्रयत्न है किंतु इस व्यवस्था का क्रियान्वयन गंभीर आत्मानुशासन की अपेक्षा करता है। यह आत्मानुशासन लोकतंत्र के दोनों घटक-- नेता और जनता-- दोनों के स्तर पर अनिवार्य है। इसके अभाव में लोकतांत्रिक-व्यवस्था किस प्रकार भ्रष्ट होकर अपना अर्थ खोने लगती है इसके भयावह साक्ष्य आज पग-पग पर दिखाई देते हैं। कहीं एक दल दूसरे दल पर बिना प्रमाण के कीचड़ उछालता रहता है तो कहीं सत्ता में बैठे लोगों के इशारे पर अन्य विपक्षी दलों के नेताओं के रास्ते रोके जा रहे हैं। जन-आंदोलनों और प्रदर्शनों के नाम पर अराजकता, उद्दंडता और राष्ट्रध्वज के असम्मान का जो दुखद दृश्य पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर दिल्ली में लाल किले पर दिखाई दिया। वह अभी दूर की बात नहीं। राजनीतिक दलों के हाथों की कठपुतली बने तथाकथित आंदोलनकारी समूहों की हिंसक उग्रता और निर्दोष-निहत्थे आंदोलनकारियों पर शासन में बैठे लोगों के इशारे पर पुलिस प्रशासन की क्रूरता- दोनों ही लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं।
लोकतंत्र जनता की सेवा का स्वचयनित पथ है किंतु जब इस पथ का पथिक जनहित की व्यापक साधना छोड़कर उसे अपनी महत्वाकांक्षाओं और दुरभिलाषाओं के लिए व्यावसायिक रूप देने लगता है तब लोकतंत्र के अमृत को विष में बदलते देर नहीं लगती। दुर्भाग्य से भारतीय नेतृत्व स्वाधीनता प्राप्ति के समय से ही देशहित पर दलीय हितों और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को वरीयता देता रहा है। देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल ने स्वयं को निरंतर सत्ता में बनाए रखने के लिए जनता को वोट बैंक में बांटने की जो कुटिल चाल चली उसने अन्य दलों को भी इतना अधिक आकर्षित किया कि आज सारा देश धर्म, जाति, वर्ग, भाषा आदि समूहों में ही नहीं अपितु राजनीतिक दलों के संकीर्ण शिविरों में भी बंट कर रह गया है। राजनीतिक दल निर्वाचन के समय निर्वाचन क्षेत्रों के धर्म-जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखकर टिकट बांटते हैं और जनता प्रत्याशी की योग्यता, क्षमता, सेवा-भावना आदि अनिवार्य विशेषताओं की अनदेखी करके जाति और धर्म को देखकर मतदान करती है। यहां तक कि प्रायः अपराधियों को भी निर्वाचित करके सत्ता में बिठा देती है। उत्तर प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री ने तो हाल ही में संपन्न होने जा रहे विधानसभा चुनावों में विजयी होने पर जातिगत जनगणना कराने का वायदा तक किया है। लोकतंत्र के नाम पर विकसित इस जातितंत्र द्वारा निर्वाचित नेता भी अपने जातिगत वोट बैंक की संतुष्टि और पुष्टि को समर्पित होकर रह जाते हैं। लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि का जाति अथवा वर्ग प्रतिनिधि बन कर रह जाना नितांत दुर्भाग्यपूर्ण है।
आज हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पंचवर्षीय योजनाओं की तरह सत्ता का सामाजिक अनुष्ठान बनकर रह गई है, जिसमें पाँच वर्ष तक सत्ता के साथ रहकर सत्तासुख भोगने के उपरांत व्यक्तिगत लाभ-लोभ की सिद्धि के लिए निर्वाचन से पूर्व अन्य दलों में जाने की खुली छूट नेताओं को प्राप्त है। न कोई आदर्श, न कोई सिद्धांत और न ही कोई सामाजिक उत्तरदायित्व ! जब जहाँ व्यक्तिगत लाभ दिखाई दे तब वहां फिट हो जाना और फिर नए दल के साथ सत्तासुख भोगना किसी नेता के लिए व्यक्तिगत लाभ का सौदा हो सकता है किंतु ऐसी स्वार्थी मानसिकता जनता और लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में नहीं कही जा सकती। यदि एक दल छोड़कर दूसरे दल में आने वाले नेता के लिए और उसके परिवार के लिए आगामी दस वर्ष तक नए दल का साधारण सदस्य बनकर केवल सेवाकार्य करने की कोई अनिवार्यता नवीन संवैधानिक संशोधन द्वारा अस्तित्व में लाई जाए तो दलबदल की इस दुर्नीति से मुक्ति संभव है।
लोकतंत्र में निर्वाचित नेता संपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधि होता है, होना चाहिए, किंतु हमारे अधिकांश जनप्रतिनिधि निर्वाचित होने के उपरांत अपने दल के समर्थकों और धर्म-जातिगत समूहों की सीमित स्वार्थपूर्ति के साधन बनकर रह जाते हैं। विभिन्न समूहों, जातियों और वर्गों की यह संकीर्णता जनहित की समग्रता का पथ बाधित करती है। आज राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर कितने ही राजनीतिक दलों के नेताओं की छवि उनके जाति-वर्ग से चिपक कर रह गई है। प्रश्न यह उठता है कि ये अपने निर्वाचन क्षेत्र की समस्त जनता के नेता हैं अथवा अपनी जाति और दल के ? यदि ये केवल अपने जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा वर्ग विशेष के हितों के लिए ही आवाज उठाते हैं तो इनका राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तरीय राजनीति में क्या महत्व है ? देश का संविधान अनेकता में एकता का शंखनाद करता हुआ जनकल्याण की व्यापक समग्रता के लिए नेतृत्व का आवाहन करता है, उसे शपथ दिलाता है किंतु वही नेतृत्व जब अपने प्रांत के लिए विशेष दर्जा मांगने लगता है, अपनी जाति या वर्ग के लिए विशेष सुविधा-साधन प्राप्त करने के लिए अड़ जाता है तब उससे जनता के अन्य वर्गों-समूहों के कल्याण की आशा समाप्त हो जाती है, सामाजिक न्याय का स्वप्न पीछे छूट जाता है और वर्ग के हित आगे आ जाते हैं। क्या भारतीय लोकतंत्र में ऐसी वर्गीय-जातीय संकीर्णता के लिए कोई स्थान है ? यदि नहीं, तो जनता को समग्रता में न देखने वाले ऐसे नेताओं के लिए हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में स्थान क्यों है ? उन्हें सत्ता में आने के लिए विशेष वर्गों से लोकलुभावन वादे करने और सत्ता में बैठकर उन समूहों को विशेष सुविधाएं देने तथा निशुल्क उपहार बांटने के असीमित अधिकार क्यों है ? जब नेता संपूर्ण निर्वाचन क्षेत्र की जनता का प्रतिनिधि है तो उस क्षेत्र के प्रत्येक नागरिक, प्रत्येक वर्ग समूह को समान सुविधा और सुरक्षा प्रदान करना उसका नैतिक दायित्व है। नेतृत्व में उदारता के स्थान पर ऐसी संकीर्णता और सीमितता निश्चय ही लोकतांत्रिक मूल्यों की खुली अवमानना है।
हमारे देश में सक्रिय राजनीतिक दलों में प्रारंभ से ही आंतरिक लोकतंत्र का अभाव रहा है। स्वतंत्रता से पूर्व के राजनीतिक परिदृश्य में सुभाषचंद्र बोस और सरदार बल्लभभाई पटेल के संदर्भ में कांग्रेस के तत्कालीन शीर्ष नेतृत्व ने जो व्यवहार किया वह सर्वविदित है। उस समय की कांग्रेस कार्यकारिणी के सदस्यों द्वारा बहुमत से लिए गए निर्णय का महात्मा गांधी द्वारा प्रभावित और परिवर्तित कर दिया जाना दल की दुर्बल लोकतांत्रिक स्थिति स्पष्ट करता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गठित अन्य दलों में भी आंतरिक लोकतंत्र की झलक तक नहीं मिलती। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं और वंशवाद के मोह ने अधिकांश राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र निगल लिया है। प्रायः प्रत्येक दल में शक्ति एक-दो व्यक्तियों के हाथों में केंद्रित दिखाई देती है। दल के सदस्यों को अपनी बात रखने तक की छूट नहीं मिलती। राजनीतिक दलों में टूट-फूट का यह भी एक बड़ा कारण है। इन अलोकतांत्रिक स्थितियों में यह विचारणीय हो जाता है कि जो शीर्ष नेतृत्व अपने दल के सीमित स्तर पर लोकतांत्रिक-व्यवस्था का सफल क्रियान्वयन नहीं कर सकते उनसे इतने विशाल देश की बहुरंगी परिस्थितियों में लोकतांत्रिक मूल्यों के सार्थक निर्वाह की अपेक्षा कैसे की जा सकती है ?
सत्ता में बैठकर अपने समर्थकों को महत्वपूर्ण पदों पर बिठाना, जनता की गाढ़ी कमाई से उन्हें लाखों रुपए के पुरस्कार देना, अपराधी और भ्रष्टाचारी होने पर भी उनके विरुद्ध न्यायिक-प्रक्रिया को टालना लोकतंत्र के वटवृक्ष की जड़ें खोखली करना है। आजादी के अरुणोदय काल में देश की राजनीति ने सत्ता में सतत बने रहने के लिए जो बबूल बोए थे वे ही बड़े होकर अब लोकतंत्र की देह को बुरी तरह लहूलुहान कर रहे हैं। जब तक राजनीति के राजपथ से अपराध के कांटे-कंकर दूर नहीं होंगे तब तक लोकतांत्रिक मूल्यों की जनहित यात्रा निरापद नहीं हो सकती।
लोकतंत्र में सत्ता सामाजिक सुख-संवर्धन का सर्वाधिक प्रभावी माध्यम है, निजी भोग-विलास का संसाधन नहीं है, निजी पारिवारिक संपत्ति भी नहीं है, जिसे विरासत में अपने वंशजों को सौंप दिया जाए। लोकतांत्रिक सत्ता त्याग और सेवा का वह दुर्गम-पथ है जिस पर उदार भाव से सारे समाज की कल्याण-कल्पना लेकर हमारे नेताओं को राजनीति में उतरना होगा, उन्हें समस्त निजी हितों को तिलांजलि देकर सारे समाज की आवश्यकताओं और अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए स्वयं को निस्वार्थ भाव से समर्पित करना होगा तथा जनता को अपने बीच से ऐसे समर्थ नेतृत्व को तलाशना और चुनना होगा तब ही हमारे लोकतंत्र को सार्थकता मिल सकती है। अन्यथा सीटों के जटिल गणित में उलझी अपराधी और स्वार्थी नेताओं से घिरी वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्था हमें असहिष्णुता, अराजकता तथा आंतरिक हिंसक-संघर्ष के गर्त में धकेल देगी। समय रहते अपने लोकतंत्र में सुधार कर उसे सही दिशा देना हमारा दायित्व है और इसी दायित्व की पूर्ति में व्यापक देशहित भी सन्निहित है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यक्ति से दल बड़ा है और दल से देश बड़ा है-- यह तथ्य नेताओं को भी समझना होगा तथा जनता को भी। जब तक नेता और जनता दोनों इस सत्य को सच्चे मन से स्वीकार नहीं करते, तब तक हमारी लोकतांत्रिक यात्रा, सुरक्षित और सुखद नहीं हो सकती। यही समझ राजनेताओं की दलबदल और जनता की जातीय मानसिकता को नियंत्रित कर लोकतंत्र को रचनात्मक दिशा दे सकती है। सार्वजनिक जीवन में नेतृत्व की निष्पक्षता, आचरण की शुचिता तथा तप-त्याग पूर्ण मानसिकता युक्त उत्कट राष्ट्रीयता के साथ जनता की निर्लोंभ जागरूकता ही अब हमारे लोकतंत्र के अमृत-कलश में घुल रहे विष को रोक सकते हैं। साथ ही जन-मन के उचित निर्देशन के लिए निष्पक्ष और निर्भय पत्रकारिता का सक्रिय सहयोग भी अपेक्षित है।
-डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
विभागाध्यक्ष-हिन्दी
शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय
होशंगाबाद म.प्र.
दुनिया के सामने लेनिन, स्टालिन, माओ के राज के उदाहरण सामने हैं। मानवता का खून बहाने के अलावा इन सबने क्या किया। इनके कर्म आज समूचे विश्व के सामने हैं। यही मानवता विरोधी और लोकतंत्र विरोधी विचार आज भारत को बांटने का स्वप्न देख रहे हैं।
भारत की त्रासदी है कि बंटवारे की राजनीति आज भी यहां फल-फूल रही है। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह सोचना कितना व्यथित करता है कि जब हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट गए। यह बंटवारा सिर्फ भूगोल का नहीं था, मनों का भी था। इसकी कड़वी यादें आज भी तमाम लोगों के जेहन में ताजा हैं। आजादी का अमृत महोत्सव वह अवसर है कि हम दिलों को जोड़ने, मनों को जोड़ने का काम करें। साथ ही विभाजन करने वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकें और राष्ट्र प्रथम की भावना के साथ आगे बढ़ें। भारत चौदहवीं सदी के ही पुर्तगाली आक्रमण के बाद से ही लगातार आक्रमणों का शिकार रहा है। 16वीं सदी में डच और फिर फ्रेंच, अंग्रेज, ईस्ट इंडिया कंपनी इसे पददलित करते रहे। इस लंबे कालखंड में भारत ने अपने तरीके से इसका प्रतिवाद किया। स्थान-स्थान पर संघर्ष चलते रहे। ये संघर्ष राष्ट्रव्यापी, समाजव्यापी और सर्वव्यापी भी थे। इस समय में आपदाओं, अकाल से भी लोग मरते रहे। गोरों का यह वर्चस्व तोड़ने के लिए हमारे राष्ट्र नायकों ने संकल्प के साथ संघर्ष किया और आजादी दिलाई। आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय सवाल उठता है कि क्या हमने अपनी लंबी गुलामी से कोई सबक भी सीखा है?
जड़ों की ओर लौटें
आजादी के आंदोलन में हमारे नायकों की भावनाएं क्या थीं? भारत की अवधारणा क्या है? यह जंग हमने किसलिए और किसके विरूद्ध लड़ी थी? क्या यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन का अभियान था? इन सवालों का उत्तर देखें तो हमें पता चलता है कि यह लड़ाई स्वराज की थी, सुराज की थी, स्वदेशी की थी, स्वभाषाओं की थी, स्वावलंबन की थी। यहां ‘स्व’ बहुत ही खास है। समाज जीवन के हर क्षेत्र, वैचारिकता ही हर सोच पर ‘अपना विचार’ चले। यह भारत के मन की और उसके सोच की स्थापना की लड़ाई भी थी। महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, वीर सावरकर हमें उन्हीं जड़ों की याद दिलाते हैं। आज देश को जोड़ने वाली शक्तियों के सामने एक गहरी चुनौती है, वह है देश को बांटने वाले विचारों से मुक्त कराना। भारत की पहचान अलग-अलग तंग दायरों में बांटकर, समाज को कमजोर करने के कुत्सित इरादों को बेनकाब करना। देश के हर मानविंदु पर सवाल उठाकर, नई पहचानें गढ़कर मूर्तिभंजन का काम किया जा रहा है। नए विमर्शों और नई पहचानों के माध्यम से नए संघर्ष भी खड़े किए जा रहे हैं।
न भूलें इस आजादी का मोल
खालिस्तान, नगा, मिजो, माओवाद, जनजातीय समाज में अलग-अलग प्रयास, जैसे मूलनिवासी आदि मुद्दे बनाए जा रहे हैं। जेहादी और वामपंथी विचारों के बुद्धिजीवी भी इस अभियान में आगे दिखते हैं। भारतीय जीवन शैली, आयुर्वेद, योग, भारतीय भाषाएं, भारत के मानबिंदु, भारत के गौरव पुरूष, प्रेरणापुंज सब इनके निशाने पर हैं। राष्ट्रीय मुख्यधारा में सभी समाजों, अस्मिताओं का एकत्रीकरण और विकास के बजाए तोड़ने के अभियान तेज हैं। इस षड्यंत्र में अब देशविरोधी विचारों की आपसी नेटवर्किंग भी साफ दिखने लगी है। संस्थाओं को कमजोर करना, अनास्था, अविश्वास और अराजकता पैदा करने के प्रयास भी इन गतिविधियों में दिख रहे हैं। 1857 से 1947 तक के लंबे कालखंड में लगातार लड़ते हुए। आम जन की शक्ति भरोसा करते हुए। हमने यह आजादी पाई है। इस आजादी का मोल इसलिए हमें हमेशा स्मरण रखना चाहिए।
भारतीयता हमारी पहचान
दुनिया के सामने लेनिन, स्टालिन, माओ के राज के उदाहरण सामने हैं। मानवता का खून बहाने के अलावा इन सबने क्या किया। इनके कर्म आज समूचे विश्व के सामने हैं। यही मानवता विरोधी और लोकतंत्र विरोधी विचार आज भारत को बांटने का स्वप्न देख रहे हैं। आजादी अमृत महोत्सव और गणतंत्र दिवस का संकल्प यही हो कि हम लोगों में भारतभाव, भारतप्रेम, भारतबोध जगाएं। भारत और भारतीयता हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र पहचान है, इसे स्वीकार करें। कोई किताब, कोई पंथ इस भारत प्रेम से बड़ा नहीं है। हम भारत के बनें और भारत को बनाएं। भारत को जानें और भारत को मानें। इसी संकल्प में हमारी मुक्ति है। हमारे सवालों के समाधान हैं। छोटी-छोटी अस्मिताओं और भावनाओं के नाम पर लड़ते हुए हम कभी एक महान देश नहीं बन सकते। इजराइल, जापान से तुलना करते समय हम उनकी जनसंख्या नहीं, देश के प्रति उन देशों के नागरिकों के भाव पर जाएं। यही हमारे संकटों का समाधान है।
गणतंत्र दिवस को संकल्पों का दिन बनाएं
समाज को तोड़ने उसकी सामूहिकता को खत्म करने के प्रयासों से अलग हटकर हमें अपने देश को जोड़ने के सूत्रों पर काम करना है। जुड़ कर ही हम एक और मजबूत रह सकते हैं। समाज में देश तोड़ने वालों की एकता साफ दिखती है, बंटवारा चाहने वाले अपने काम पर लगे हैं। इसलिए हमें ज्यादा काम करना होगा। पूरी सकारात्मकता के साथ, सबको साथ लेते हुए, सबकी भावनाओं का मान रखते हुए। यह बताने वाले बहुत हैं कि हम अलग क्यों हैं। हमें यह बताने वाले लोग चाहिए कि हम एक क्यों हैं, हमें एक क्यों रहना चाहिए। इसके लिए वासुदेव शरण अग्रवाल, धर्मपाल, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त, जयशकंर प्रसाद, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा जैसे अनेक लेखक हमें रास्ता दिखा सकते हैं। देश में भारतबोध का जागरण इसका एकमात्र मंत्र है। गणतंत्र दिवस को हम अपने संकल्पों का दिन बनाएं, एक भारत-श्रेष्ठ भारत और आत्मनिर्भर भारत का संकल्प लेकर आगे बढ़ें तो यही बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का तिलक बन जाएगी। हमारी आजादी के आंदोलन के महानायकों के स्वप्न पूरे होंगें, इसमें संदेह नहीं।
-प्रो0 संजय द्विवेदी
(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)
42 देश भारत से हथियार खरीद रहे हैं। इनमें से बहुत सारे देश वो हैं, जो चीन से परेशान हैं और अब भारत हथियार देकर उनकी मदद कर रहा है। वर्तमान भारत सरकार रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने पर ज़ोर देती रही है। इसके लिए कई वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध भी लगाया है।
फिलीपींस को ब्रह्मोस मिसाइल बेचने का सौदा कर भारत दुनिया के उन चंद देशों की सूची में आ गया है जो दूसरे देशों को शस्त्र बेचते हैं। यह भारत की बड़ी उपलब्धि है। ये खबर दुनिया भर की मीडिया में चर्चा बनी। संपादकीय लिखे गए। ब्रह्मोस की बिक्री का यह शोर इस बात का नहीं है कि भारत ने 375 मिलियन डॉलर के हथियार बेचे हैं बल्कि यह शोर इसलिए है कि देखो दुनिया के हथियार बाजार में एक और नया बेचने वाला देश आ गया है।
ब्रह्मोस मिसाइल के लिए ये पहला विदेशी ऑर्डर है। फिलीपींस को 36 ब्रह्मोस्त्र बेची जानी है। रिपोर्टों के मुताबिक ब्रह्मोस्त्र को लेकर दक्षिण पूर्व एशिया के कुछ और देशों के साथ बातचीत की जा रही है। हम शस्त्र काफी समय से निर्यात कर रहे हैं। ब्रह्मोस को लेकर चर्चा में इसलिए आए कि यह दुनिया की आधुनिकतम मिसाइल है। चीन इसके निर्माण और टैस्टिंग को लेकर कई बार आपत्ति दर्ज करा चुका है। अभी हिंदुस्तान एयरनोटिक्स का मॉरीशस को एडवांस लाइट हैलिकाप्टर (एएचएल एमके−3) की एक यूनटि देने का सौदा हुआ है। मॉरीशस पहले ही इस कंपनी के हैलिकाप्टर प्रयोग कर रहा है। भारत ने वियतनाम के साथ भी 100 मिलियन डॉलर यानि 750 करोड़ रुपये का रक्षा समझौता किया है। जिसमें वियतनाम को भारत में बनी 12 हाई स्पीड गार्ड बोट दी जाएंगी। भारत आर्मेनिया को 280 करोड़ की रडार प्रणाली निर्यात कर रहा है। भारत 100 से ज्यादा देशों को राष्ट्रीय मानक की बुलेटप्रूफ जैकेट का निर्यात शुरू कर रहा है। भारत की मानक संस्था ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड (बीआईएस) के मुताबिक, बुलेटप्रूफ जैकेट खरीददारों में कई यूरोपीय देश भी शामिल हैं। अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी के बाद भारत चौथा देश है, जो राष्ट्रीय मानकों पर ही अंतरराष्ट्रीय स्तर की बुलेटप्रूफ जैकेट बनाता है। भारत में बनी बुलेटप्रूफ जैकेट की खूबी है कि ये 360 डिग्री सुरक्षा के लिए जानी जाती है।
42 देश भारत से हथियार खरीद रहे हैं। इनमें से बहुत सारे देश वो हैं, जो चीन से परेशान हैं और अब भारत हथियार देकर उनकी मदद कर रहा है। वर्तमान भारत सरकार रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने पर ज़ोर देती रही है। इसके लिए कई वस्तुओं के आयात पर प्रतिबंध भी लगाया है। भारत रक्षा क्षेत्र में निर्यात बढ़ाने का लक्ष्य लेकर भी चल रहा है। पिछले साल दिसंबर में रक्षा मंत्रालय ने संसद में एक सवाल के जवाब में बताया कि 2014-15 में भारत का रक्षा क्षेत्र में निर्यात 1940.64 करोड़ रुपये था। 2020-21 में ये बढ़कर 8,435.84 करोड़ रुपये हो गया। साल 2019 में प्रधानमंत्री ने रक्षा उपकरणों से जुड़ी भारतीय कंपनियों को साल 2025 तक पांच अरब डॉलर तक के निर्यात का लक्ष्य दिया।
सुपरसोनिक मिसाइल, रैडार सिस्टम और भी बहुत कुछ। इनकी बिक्री के लिए आज बहुत बड़ा बाजार मौजूद है और सब हमारे बड़े शत्रु चीन पैदा कर रहा है। चीन के अपनी सीमा से सटे देशों से ही नहीं सुदूरवर्ती देशों से विवाद है। दक्षिण चीन सागर में चीन की बढ़ती दादागिरी से फिलीपींस सहित दक्षिणी पूर्वी एशियाई देश परेशान हैं। दक्षिणी पूर्वी एशियाई देशों ने चीन को जवाब देने की ठानी है। पांच देश- फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ब्रूनेई और इंडोनेशिया का मिलकर एक गठबंधन बनाने की बात चल रही है। ये गठबंधन दक्षिण चीन सागर में आक्रामक चीन को जवाब देने के लिए है और इनके लिए भारत एक बढ़िया और सस्ता शस्त्र विक्रेता हो सकता है।
पिछले दो दशकों में चीन ने बांग्लादेश, म्यांमार, पाकिस्तान, श्रीलंका और अफगानिस्तान जैसे देशों को आधुनिक हथियार बेचे। चीन ऐसा करके भारत को घेरना चाहता है। अब चीन के खिलाफ भारत ने भी इसी रणनीति पर काम करना शुरू कर दिया है। भारत ने चीन के शत्रु देशों से दोस्ती और उन्हें मजबूत करने की नीति पर तेजी से आगे बढ़ना प्रारंभ कर दिया। आधुनिक शस्त्र का निर्यात ये रक्षा क्षेत्र के विकास की कहानी है, जबकि हमने कई क्षेत्र में अच्छा कार्य किया है। कोरोना महामारी के आने से पहले हम इसके बचाव के लिए प्रयोग होने वाला कोई उपकरण नहीं बनाते थे। अब हम मास्क, पीपीई किट, वैंटीलेटर के साथ कोरोना की वैक्सीन भी बना रहे हैं। अपने देश के 150 करोड़ से ज्यादा नागरिकों को तो वैक्सीन लगी ही, दुनिया के कई देशों को हमने वैक्सीन मुफ्त दी। आज कई देशों में इसकी मांग है।
देश बदल रहा है। तेजी से बदल रहा है। कुछ समय पूर्व तक वह अपनी जरूरतों के दूसरे देशों पर निर्भर था। सेना की जरूरत के लिए दूसरे बड़े देश के आगे हाथ फैलाने पड़ते थे। अब यह गर्व की बात है कि वह दूसरे देशों को अन्य सामान ही नहीं शस्त्र भी बेचने लगा है। मुझे याद आता है 1965 का भारत−पाकिस्तान युद्ध का समय। उस समय हम अपनी जरूरत का गेंहू और अन्य अनाज भी पैदा नहीं कर पाते थे। अमेरिका अपना घटिया लाल गेंहू हमें बेचता था। ये देश में राशन की दुकानों से जनता को बांटा जाता था। 1965 के पाकिस्तान युद्ध के समय अमेरिका ने देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को धमकाया था कि वह युद्ध रोकें नहीं तो हम भारत को गेंहू की आपूर्ति बंद कर देंगे। भारत के देशवासी भूखे मरने लगेंगे। शास्त्री जी ने उसकी बात को नजरअंदाज कर दिया था। उन्होंने देशवासियों से अपील की थी कि अनाज के संकट को देखते हुए सप्ताह में एक दिन उपवास रखें। उसी के साथ हमने मेहनत की। उत्पादन बढ़ाया। कल−कारखाने लगाए। आज हम काफी आत्मनिर्भर हो गये। दुनियाभर में भारत की प्रतिभा का आज डंका बजा है। देश के वैज्ञानिक और तकनीकि विशेषज्ञ दुनिया के प्रतिष्ठित संस्थानों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। भारतीय उत्पादों की दुनिया में मांग हैं। हम विकास और निर्माण के नए आयाम बना रहे हैं।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पूर्व पुलिस महानिदेशक पर दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने के आरोप में भारतीय दण्डावली की धारा 153-ए के अन्तर्गत मामला दर्ज किया गया है। वाद पुलिस अधीक्षक कर्मवीर सिंह, प्रभारी थाना सिटी की शिकायत पर दर्ज किया गया है।
‘‘अगर मेरे बराबर हिन्दुओं को जलसा करने की इजाजत दी गई तो मैं ऐसे हालात पैदा कर दूंगा जो सम्भाले नहीं सम्भलेंगे। मैं अल्लाह की कसम खाता हूं कि मैं उन्हें कोई कार्यक्रम नहीं करने दूंगा। मैं कौमी फौजी हूं... मैं आर.एस.एस. का एजेण्ट नहीं हूं जो डर के मारे घर में छिप जाएगा। अगर वे फिर से ऐसा करने का प्रयास करेंगे तो मैं खुदा की कसम खाता हूं कि मैं उन्हें उनके घर में घुस कर पीटूंगा।’’ सुनने में ये गरलयुक्त पंक्तियां स्वतन्त्रता पूर्व मुस्लिम लीग के किसी मंच से दिए गए भाषण की लगती हों परन्तु घटना 20 जनवरी, 2022 की है, जब पंजाब के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र मलेरकोटला में कांग्रेस उम्मीदवार व वर्तमान विधायक रजिया सुल्ताना के पति और पंजाब पुलिस के पूर्व महानिदेशक मोहम्मद मुस्तफा भाषण दे रहे थे। ये साम्प्रदायिक विष मोहम्मद मुस्तफा के श्रीमुख से ही निकला है।
पूर्व पुलिस महानिदेशक पर दो समुदायों के बीच वैमनस्य बढ़ाने के आरोप में भारतीय दण्डावली की धारा 153-ए के अन्तर्गत मामला दर्ज किया गया है। वाद पुलिस अधीक्षक कर्मवीर सिंह, प्रभारी थाना सिटी की शिकायत पर दर्ज किया गया है। पुलिस की प्राथमिकी पर प्रतिक्रिया देते हुए मोहम्मद मुस्तफा ने चाहे इसे पूरी तरह बकवास बताया और दावा किया कि उन्होंने ‘फितने’ शब्द का प्रयोग किया जिसका अर्थ है कानून तोड़ने वाले। उनका कहना है कि वो मुसलमानों के एक समूह पर गुस्सा थे जिन्होंने उन पर हमले का प्रयास किया। वो उन्हें चेतावनी दे रहे थे, हिन्दुओं को नहीं।
पंजाब में साम्प्रदायिक राजनीति का कोई इतिहास नहीं है परन्तु मोहम्मद मुस्तफा के इस भाषण को राज्य की राजनीति में विषैले जिन्नावाद की कोपलों के रूप में देखा जा रहा है। मोहम्मद मुस्तफा ने केवल विधान की दृष्टि में ही अपराध नहीं किया बल्कि गुरु गोबिन्द सिंह जी के उस विश्वास और विचारों को भी ठेस पहुंचाई है जो उन्होंने यहां के नवाब के प्रति व्यक्त किए। इतिहास है कि जब सरहिन्द में गुरु गोबिन्द सिंह जी के छोटे साहिबजादे फतेह सिंह व जोरावर सिंह को मुगल सूबेदार वजीर खां द्वारा दिवारों में चिनवाया जा रहा था तो उसने वहां पर खड़े मलेरकोटला के नवाब मोहम्मद शेर खां को अपने भाई की मौत का बदला लेने को कहा। इस पर शेर खां ने कहा कि उनकी लड़ाई गुरु गोबिन्द सिंह से है, इन बच्चों ने क्या बिगाड़ा है। गुरु गोबिन्द सिंह जी को इस घटना का पता चला तो उन्होंने शेर खां को आशीर्वाद दिया और तब से लेकर यह स्थान साम्प्रदायिक सौहार्द का प्रतीक बना हुआ है। यहां तक कि 1947 में जब देश में साम्प्रदायिक वातावरण खून में सन चुका था और जगह-जगह खून खराबा हो रहा था तो भी हिन्दू-सिखों ने अपने गुरु साहिब का वचन निभाते हुए यहां के मुसलमानों का तनिक भी अहित नहीं किया। अब कांग्रेस के नेता मोहम्मद मुस्तफा ने उसी साम्प्रदायिक सौहार्द की जड़ों पर प्रहार किया और गुरु गोबिन्द सिंह जी के विश्वास को तोड़ा है।
आदर्शवादी बातों को दरकिनार कर दिया जाए तो मुस्लिम बाहुल्य इलाके मलेरकोटला में साम्प्रदायिक सद्भावना बनाए रखने का काम एक तरफा ही होता आया है, शेर खां के बाद उनकी मानसिकता वाले कम हो लोग पैदा हुए हैं। शेर खां की कमी के चलते ही यहां नामधारी सम्प्रदाय के 80 सिखों को अपना बलिदान देना पड़ा था। साल 1872 गोहत्या के मामले में मलेरकोटला के एक मुस्लिम न्यायाधीश ने सजा सुनाई कि सरेआम कचहरी में एक बैल की हत्या की जाए। गांव फरवाही के नम्बरदार सन्त गुरमुख सिंह के सामने कोतवाली में एक बैल को कत्ल किया गया और गो-भक्त गुरमुख सिंह को बहुत अपमानित किया गया। नामधारी सम्प्रदाय के प्रमुख सद्गुरु राम सिंह कूका जी की स्वीकृति ले कर जत्थेदार हीरा सिंह व लहना सिंह के नेतृत्व में नामधारी सिखों ने बड़े जत्थे के साथ मलेरकोटला के कसाईयों पर हमला कर दिया। इस पर अंग्रेज सरकार ने 67 नामधारी सिखों को तोप से उड़ा कर शहीद कर दिया।
आज से लगभग 9 साल पहले 30 दिसम्बर, 2013 में मलेरकोटला में एक सात वर्षीय बच्चे विधू जैन को उन्मादियों ने जला कर मार दिया। बताया जाता है कि विधू जैन का किसी बात को लेकर अपने साथियों से झगड़ा हुआ था परन्तु इसका खामियाजा उस बच्चे को अपनी जान गंवा कर भुगतना पड़ा। इस घटना के इतने साल बीत जाने के बाद भी पंजाब की पुलिस दोषियों को सजा दिया जाना तो दूर उनकी पहचान तक नहीं कर पाई है। यह समझना मुश्किल नहीं कि जिस पुलिस में मोहम्मद मुस्तफा जैसे साम्प्रदायिक मानसिकता के लोग प्रम्मुख पद पर तैनात हों वहां उन्मादियों को सजा मिले यह कैसे सम्भव है? मलेरकोटला के निवासी बताते हैं कि जब भी पुलिस विधू जैन हत्याकाण्ड की जांच करने आती तो उसके आसपास उन्मादियों की इतनी भीड़ इक्ट्ठा हो जाती कि पुलिस को अपना काम करना मुश्किल हो जाता। आज विधू जैन का परिवार अपने लाड़ले को खोने के बाद सब्र करके घर बैठ चुका है। यहां का हिन्दू समाज राजनीतिक रूप से भी उपेक्षित है और दांतों के बीच जीभ जैसा जीवन व्यतीत करने को विवश है। उन्मादियों द्वारा हिन्दुओं को चुनाव न लड़ने के लिए दबाव बनाया जाता है और यहां के लोग बताते हैं कि मोहम्मद मुस्तफा ने तो केवल इसी उन्मादी भावना को स्वर दिया है। हिन्दुओं को प्रताड़ित व दबाव में लाने का काम तो काफी समय से चल रहा है।
मोहम्मद मुस्तफा 1985 बैच के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी हैं और इस्लामिक व सूक्ष्म वामपन्थी विचारधारा से प्रभावित हैं। वे पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री कैप्टन अमरिन्दर सिंह के भी करीबी रहे परन्तु कैप्टन द्वारा अपने कार्यकाल में दिनकर गुप्ता को पंजाब पुलिस प्रम्मुख नियुक्त करने के बाद वे सिद्धू के पाले में चले गए। उन्होंने इसके विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया परन्तु असफल रहे। यहां रोचक तथ्य यह रहा कि सर्वोच्च न्यायालय में उनके केस की पैरवी वरिष्ठ अधिवक्ता एडवोकेट एजाज मकबूल ने की जो साल 2019 में जमीयत उलेमा-ए-हिन्द की ओर से श्रीराम मन्दिर केस में मन्दिर निर्माण के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर कर चुके हैं। उनके पुलिस प्रमुख रहते हुए पंजाब में जिस तरह तेजी से सार्वजनिक स्थानों के आसपास मस्जिदों, मजारों-ईदगाहों का निर्माण हुआ, दूसरे प्रदेशों से लाकर मुसलमानों को बसाया गया और उन्हें संरक्षण दिया गया वह भी जांच का विषय है। मुस्तफा हिन्दुत्व व संघ के खिलाफ ट्वीट कर कई बार विवादों में आ चुके हैं और अब उन्हें पंजाब में जिन्नावादी कोपलों के रूप में देखा जाने लगा है।
वैसे कांग्रेस में जिन्नावादियों की कमी नहीं। हाल ही में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के समर्थन में उतरे इत्तेहाद मिल्लत काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा खां व उनके जैसे न जाने कितने ही नेता हैं जो सरेआम हिन्दुओं को गाली दे चुके और बाटला हाऊस में मारे गए आतंकियों को निर्दोष बता चुके हैं। अब इस बिरादरी में पंजाब के मोहम्मद मुस्तफा का भी नाम जुड़ चुका है और देश विभाजन की सर्वाधिक त्रासदी झेल चुके पंजाब के लिए यह अत्यन्त अशुभ समाचार है।
-राकेश सैन
लोगों की मानसिकता में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। इस दशक के लोगों को गांधी नहीं अपितु कठोर कदम उठाने वाले हिटलर जैसे व्यक्तित्व की जरूरत हो गई है। आज दुनिया के देशों में एक नजर घुमा कर देखेंगे तो कठोर निर्णय लेने वाले राष्ट्राध्यक्ष को हाथोंहाथ लिया जा रहा है।
केवल और केवल एक साल की अवधि में ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन की लोकप्रियता में तेजी से गिरावट देखने को मिल रही है। एक सर्वे के अनुसार मात्र 11 प्रतिशत अमेरिकी लोग बाइडन के कार्यकाल को एक्सीलेंट की श्रेणी में रख रहे हैं तो 37 फीसदी लोगों ने उन्हें पूरी तरह से विफल राष्ट्रपति माना है। एक समय था जब बड़बोले डोनाल्ड ट्रंप का विवादों से स्थाई नाता माना जाता था पर बाइडन के पिछले एक साल के कार्यकाल का विश्लेषण करने पर निराशा ही देखने को मिल रही है। दरअसल बाइडन को सबसे अधिक अलोकप्रिय बनाने में अफगानिस्तान को तालिबान के हवाले करने का निर्णय माना जाता है। माना जाता था कि बड़बोले डोनाल्ड ट्रंप की तुलना में बाइडन अच्छे राष्ट्रपति सिद्ध होंगे पर जो एक कुशल प्रशासक और देशहित में कठोरतम निर्णय लेने की आशा बाइडन से अमेरिकी लगाए बैठे थे उन्हें निराशा ही हाथ लगी है।
सर्वे के अनुसार अब उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की लोकप्रियता भी लगातार कम हो रही है। कारण साफ है कि पिछले एक दशक से लोगों की मानसिकता में तेजी से बदलाव देखने को मिल रहा है। इस दशक के लोगों को गांधी नहीं अपितु कठोर कदम उठाने वाले हिटलर जैसे व्यक्तित्व की जरूरत हो गई है। आज दुनिया के देशों में एक नजर घुमा कर देखेंगे तो कठोर निर्णय लेने वाले राष्ट्राध्यक्ष को हाथोंहाथ लिया जा रहा है। राष्ट्रवाद तेजी से फैला है। बल्कि यह कहना अधिक सही होगा कि आज अतिराष्ट्रवाद का युग देखा जा रहा है। इसका एक बड़ा उदाहरण तो हिन्दुस्तान में ही देखा जा सकता है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को दुनिया के देशों में उनके कठोर निर्णयों के कारण जाना जाने लगा है। कोई यह देखने की फुरसत नहीं रखता कि परिणाम क्या आ रहे हैं अपितु निर्णय लेने की क्षमता के कारण जनता की यह सोच बनती जा रही है कि कम से कम नेता में निर्णय लेने की क्षमता तो है।
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन से नाराजगी का एक बड़ा कारण अफगानिस्तान से सेना की वापसी है। अमेरिका ही नहीं अपितु दुनिया के अधिकांश देशों को अमेरिका का यह निर्णय लौट के बुद्धू घर को आए जैसा हो गया है। आज अमेरिका के इस निर्णय से तालिबानी विस्तारवादी ताकतों को मजबूत होने का अवसर मिला है तो दूसरी और अफगानिस्तानी नागरिक तालिबान के रहम कर्मों पर आ गए हैं। न्यूजवीक जैसे अखबार ने बाइडन की एप्रूवल रेटिंग में एक साल में ही इतनी अधिक कमी पर चिंता व्यक्त की है। अफगान नीति की विफलता या यों कहें कि अफगानिस्तान नीति में गलती किसी ने की हो, पर सेना की वापसी से अमेरिकी और दुनिया के देश, सभी लोग हताश हुए हैं। आज अति राष्ट्रीयता का युग चल रहा है और शांति या सद्भावना की बात दूर की बात होती जा रही है।
सारी दुनिया पिछले दो सालों से कोरोना के नित नए वैरियंट से दो-चार हो रही है। कोरोना की पहली लहर हो या दूसरी या तीसरी जिस तरह से अमेरिका में संक्रमण और मौत का सिलसिला चला उससे भी बाइडन की छवि पर विपरीत प्रभाव पड़ा है। पिछले एक साल में कोरोना से निपटने में भी बाइडन प्रशासन को विफल माना गया है। हालांकि कोरोना विश्वव्यापी महामारी है और भारत जैसे देश तीसरी लहर से दो-चार हो रहे हैं। ओमिक्रॉन का असर जिस तरह से देखा गया उससे भी अमेरिकीयों में निराशा ही देखी गई है। कोविड के कारण सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई है। इसमें दो राय भी नहीं हो सकती पर महंगाई पर नियंत्रण नहीं होना भी बाइडन की विफलता का एक कारण माना जा रहा है। ऐसे ही अनेक कारण हैं जिससे बाइडन का ग्राफ लगातार डुबकी लगाए जा रहा है।
दरअसल राष्ट्रपति बाइडन ने पिछले साल 6 जनवरी को दिए एक संबोधन में कहा था कि मैं राष्ट्रपति पद की शक्ति में विश्वास रखता हूं और उसका उद्देश्य देश को एकजुट करना है। दरअसल इस संबोधन पर बाइडन खरे नहीं उतरे हैं। यह अमेरिकीयों का मानना है। अफगानिस्तान पर निर्णय से कहीं ना कहीं अमेरिका की शक्तिशालिता पर प्रश्न उठा है तो लोगों में निराशा ही आई है। एक शक्तिशाली देश जिस तरह से किसी देश को अपने रहमो कदम पर छोड़ आया है वह विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाता है। इससे चीन और रूस को भी एक संदेश गया है कि अमेरिका की एक छत्रता में कमी आई है।
हालात सामने हैं। सर्वे रिपोर्ट्स चेताने वाली है तो डेमोक्रेट्स में निराशा भी आ रही है। अमेरिका के वर्चस्व में कमी साफ दिखाई देने लगी है। आखिर राष्ट्रवादिता के युग में कठोर निर्णय लेने वाले व्यक्ति की छवि कुछ और ही होती है। अमेरिकी लोग अफगानिस्तान का निर्णय मैदान छोड़ कर भागने जैसा मानते हैं और यही कारण है कि लोगों में बाइडन से निराशा हुई है। अभी तो पूरे पूरे तीन साल का समय है। लोगों की धड़कन को देखकर बाइडन को अपनी छवि में सुधार लाना होगा तथा प्रबंधन और निर्णय के क्षेत्र में अपनी छवि छोड़नी होगी। लोग परिणाम से उतने प्रभावित नहीं होते जितने निर्णय से होते हैं।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
पिछले सालों में खासतौर से डीबीटी सिस्टम चालू होने और जनधन खातों के बाद बैंकों की पहुंच आम आदमी तक आसान हुई है। कोरोना काल ने लोगों को और अधिक ऑनलाईन पेमेंट व पेटीएम आदि एप्स के माध्यम से भुगतान को बढ़ावा मिला है।
यह बेहद चिंतनीय है कि केवल और केवल एक साल में बैंकिंग लोकपाल के पास बैंकों के खिलाफ 3 लाख 41 हजार से ज्यादा शिकायतें दर्ज हुई है। हालांकि इनमें से अधिकांश शिकायतें शहरी क्षेत्र से हैं तो क्रेडिट कार्ड और रिकवरी एजेंटों के दुर्व्यवहार को लेकर अधिक शिकायतें प्राप्त हुई हैं। विचारणीय यह भी है कि शिकायतों का सिलसिला निजी क्षेत्र के बैंकों का अधिक है। इस मामले में राहत की बात यह है कि सरकारी क्षेत्र के या यों कहें कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की शिकायतें तुलनात्मक रूप से कम है। हालांकि एसबीआई में अन्य बैंकों के मर्जर के बाद हालात तेजी से बदले हैं और अब एसबीआई बैंक के कार्मिकों के व्यवहार को लेकर भी लोगों की सोच में बदलाव आया है और यह माना जा रहा है कि एसबीआई के कार्मिकों का व्यवहार भी रुखा होने लगा है। चौंकाने वाली बात यह है कि ताजातरीन आंकड़ों के अनुसार चण्डीगढ़ में सबसे अधिक शिकायतें दर्ज हुई हैं। कानपुर, दिल्ली, पटना, रायपुर और रांची एक दूसरे के पीछे ही चल रहे हैं। मेट्रो सिटीज में सबसे अधिक 97 फीसदी शिकायतें क्रेडिट कार्ड से जुड़ी होने के साथ ही 80 प्रतिशत से ज्यादा शिकायतें रिकवरी एजेंटों की हैं। एक बदलाव और देखने को मिला है कि अब लोग ई-मेल के साथ ही ऑनलाईन शिकायतें दर्ज कराने में भी आगे आए हैं। यह सब तस्वीर आरबीआई लोकपाल कार्यालय के 2020-21 के जारी आंकड़ों के अनुसार है। यह तय माना जाना चाहिए कि 2021-22 में भी हालात लगभग वही हैं और कोई खास बदलाव नहीं दिखता है। सबसे गंभीर बात यह है कि बैंकों द्वारा बिना किसी सूचना के शुल्कों के नाम से सीधे खातों से रकम काट ली जाती है। अब हालात यह हो गए हैं कि आए दिन किसी ना किसी नाम से खातों से शुल्क के नाम पर कटोती होने लगी है।
पिछले सालों में खासतौर से डीबीटी सिस्टम चालू होने और जनधन खातों के बाद बैंकों की पहुंच आम आदमी तक आसान हुई है। कोरोना काल ने लोगों को और अधिक ऑनलाईन पेमेंट व पेटीएम आदि एप्स के माध्यम से भुगतान को बढ़ावा मिला है। हालांकि साइबर ठगों ने इन साधनों से लोगों के खातों में सेंधमारी भी तेजी से शुरू कर दी है। कभी किसी नाम से तो कभी किसी और तरीके से बैंक खातों में साईबर ठगी के मामले दिन-प्रतिदिन सामने आने लगे हैं तो इस तरह के समाचार भी समाचार पत्रों के स्थाई कॉलम की तरह आने लगे हैं। आए दिन समाचार पत्रों के माध्यम से पता चलता है कि लिंक या किसी और बहाने से ओटीपी प्राप्त कर खातों से पैसे निकाल कर ठगी होने लगी है। हालांकि बैंकों ने इन मामलों में सतर्कता अभियान चला कर लोगों को साचेत किया है पर परिणाम वही ढाक के तीन पात वाले ही हैं।
एक ओर जब से बैंकों से आसानी से ऋण मिलने लगे हैं तो लोगों की आवश्यकताएं भी पूरी होने लगी हैं। कोई मकान के लिए तो कोई कार, व्हीकल, एलईडी टीवी या अन्य साधनों के लिए ऋण लेने लगे हैं। कोरोना के कारण लोगों की नौकरी प्रभावित हुई है तो वेतन भत्तों में कटौती के कारण आय प्रभावित हुई है। इससे ऋण की किस्त भी समय पर जमा नहीं होने के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। वहीं बैंकों द्वारा जो रिकवरी एजेंट नियुक्त किए गए हैं उनका व्यवहार बेहद चिंताजनक होता जा रहा है। येन-केन प्रकारेण वसूली के लिए डराने धमकाने से लेकर कार आदि बीच रास्ते उठा ले जाना आम होता जा रहा है। हालांकि बैंकों की तुलना में इस तरह की घटनाएं ज्यादातर वित्तदायी संस्थाओं द्वारा अधिक हो रही हैं। पर है यह बेहद चिंतनीय। एक और बात वह यह कि पर्सनल लोन की सहज सुलभता भी लोगों को कर्जे के बोझ के नीचे दबाती जा रही है। कहने को तो रुपए पैसे की जरूरत तत्काल पूरी हो जाती है पर एक तो इसकी ब्याज दर और फिर किस्त समय पर नहीं चुकी तो दण्डनीय ब्याज दर, पुराने जमाने के किसी साहूकार से कम नहीं है। ऐसे में एक बार इस चक्रव्यूह में फंसने के बाद निकलना मुश्किल हो जाता है।
एक समय था जब बैंक की नौकरी सफेदपोश व प्रतिष्ठित नौकरी मानी जाती थी तो बैंक कर्मियों का व्यवहार अनुकरणीय माना जाता था। मामूली शिकायत पर तत्काल कार्यवाही होती थी तो एक सीट से दूसरी सीट पर बदलाव होता रहता था। इससे बैंक स्तर पर किसी तरह की गड़बड़ी की संभावना नहीं के बराबर होती थी। आज तो आए दिन बैंक कर्मियों द्वारा भी गबन घोटालों की खबर आम होती जा रही है। हालांकि ऐसे गिने चुने कार्मिक ही हैं पर व्यवस्था पर प्रश्नचिन्ह तो उभर ही रहे हैं। समस्या की एक जड़ बैंकिंग क्षेत्र के कॉल सेंटर्स भी हैं। जब चाहे तब फोन करने में इन्हें महारत हासिल होने के साथ ही लुभावने वादों में लेकर लोगों को साध लेते हैं।
भले ही आज एक साल में 3 लाख 41 हजार शिकायतें बैंकिंग लोकपाल के पास दर्ज होना कम लग रही हों पर यह अपने आप में चेताने के लिए काफी है। बैंकों को भी अपनी व्यवस्था को सुधारना होगा। एक ओर बैंकों को पब्लिक और कस्टमर फ्रैण्डली बनना होगा तो दूसरी और साईबर अपराध जैसे सेंध लगाने के तरीकों की तोड़ खोजनी होगी। बैंकों को अपनी प्रतिष्ठा स्वयं बनानी होगी तो जन-शिकायतों के प्रति संवेदनशील होना होगा। शिकायत एक हो या एक हजार, शिकायत आखिर शिकायत ही होती है इसलिए ऐसे हालात आने से रोकने होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज लोगों में बैंकों के प्रति विश्वास बढ़ा है। अब इस विश्वास पर खरा उतरने की जिम्मेदारी भी बैंकों की हो जाती है।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा
नेताजी कहा करते थे कि, “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है। इसलिए किसी को असफलता से घबराना नहीं चाहिए।” इस छोटी सी पंक्ति के माध्यम से नेताजी ने असफल और निराश लोगों के लिए सफलता के नए द्वारा खोल दिए। यही सरलता और सहजता ही उनकी संचार कला का अभिन्न अंग थी।
सफल जीवन के चार सूत्र कहे जाते हैं- जिज्ञासा, धैर्य, नेतृत्व की क्षमता और एकाग्रता। जिज्ञासा का मतलब है जानने की इच्छा। धैर्य का मतलब विषम परिस्थितयों में खुद को संभाले रखना। नेतृत्व की क्षमता यानी जनसमूह को अपने कार्यों से आकर्षित करना। और एकाग्रता का अर्थ है एक ही चीज पर ध्यान केंद्रित करना। अगर भारत के संदर्भ में हम देखें, तो किसी व्यक्ति के जीवन में ये चारों सूत्र चरितार्थ होते हैं, तो वो सिर्फ नेताजी सुभाष चंद्र बोस हैं। नेताजी ने एक ऐसी सरकार के विरुद्ध लोगों को एकजुट किया, जिसका सूरज कभी अस्त नहीं होता था। दुनिया के एक बड़े हिस्से में जिसका शासन था। अगर नेताजी की खुद की लेखनी पढ़ें, तो हमें पता चलता है कि वीरता के शीर्ष पर पहुंचने की नींव कैसे उनके बचपन में ही पड़ गई थी।
वर्ष 1912 में यानी आज से 110 साल पहले, उन्होंने अपनी मां को जो चिठ्ठी लिखी थी, वो चिट्ठी इस बात की गवाह है कि नेताजी के मन में गुलाम भारत की स्थिति को लेकर कितनी वेदना थी। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 15 साल थी। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी ने देश का जो हाल कर दिया था, उसकी पीड़ा उन्होंने अपनी मां से पत्र के द्वारा साझा की थी। उन्होंने अपनी मां से पत्र में सवाल पूछा था कि, “मां, क्या हमारा देश दिनों-दिन और अधिक पतन में गिरता जाएगा? क्या ये दुखिया भारत माता का कोई एक भी पुत्र ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह अपने स्वार्थ को तिलांजलि देकर, अपना संपूर्ण जीवन भारत मां की सेवा में समर्पित कर दे? बोलो मां, हम कब तक सोते रहेंगे?” इस पत्र में उन्होंने अपनी मां से पूछे गए सवालों का उत्तर भी दिया था। उन्होंने अपनी मां को स्पष्ट कर दिया था कि अब और प्रतीक्षा नहीं की जा सकती, अब और सोने का समय नहीं है, हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा, आलस्य त्यागना ही होगा और कर्म में जुट जाना होगा। अपने भीतर की इस तीव्र उत्कंठा ने उस किशोर सुभाष चंद्र को नेताजी सुभाष चंद्र बोस बनाया।
नेताजी कहा करते थे कि, “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है। इसलिए किसी को असफलता से घबराना नहीं चाहिए।” इस छोटी सी पंक्ति के माध्यम से नेताजी ने असफल और निराश लोगों के लिए सफलता के नए द्वारा खोल दिए। यही सरलता और सहजता ही उनकी संचार कला का अभिन्न अंग थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के साथ-साथ पत्रकारिता भी की थी और उसके माध्यम से पूर्ण स्वराज के अपने स्वप्न और विचारों को शब्दबद्ध किया था। नेताजी ने 5 अगस्त, 1939 को अंग्रेजी में राजनीतिक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ निकाला और 1 जून, 1940 तक उसका संपादन किया। इस अखबार के एक अंक की कीमत थी, एक आना। नेताजी ने अपनी पत्रकारिता का उद्देश्य पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य से जोड़ रखा था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्रकारिता में यह विवेक था कि सही बात का अभिनंदन और गलत का विरोध करना चाहिए। नेताजी अंग्रेजी शासन के धुर विरोधी थे, लेकिन ब्रिटेन के जिन अखबारों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम का समर्थन किया, उसकी प्रशंसा करते हुए उन अखबारों के मत को नेताजी ने अपने अखबार में पुनर्प्रस्तुत किया। नेताजी ने स्वाधीनता की लक्ष्यपूर्ति के लिए अखबार निकाला, तो रेडियो के माध्यम का भी उपयोग किया। 1941 में ‘रेडियो जर्मनी’ से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीयों के नाम संदेश में कहा था, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।” उसके बाद 1942 में ‘आजाद हिंद रेडियो’ की स्थापना हुई, जो पहले जर्मनी से और फिर सिंगापुर और रंगून से भारतीयों के लिए समाचार प्रसारित करता रहा। 6 जुलाई, 1944 को ‘आजाद हिंद रेडियो’ से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पहली बार महात्मा गांधी के लिए ‘राष्ट्रपिता’ संबोधन का प्रयोग किया था।
आजाद हिंद सरकार की स्थापना के समय नेताजी ने शपथ लेते हुए एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था, जहां सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान अवसर हों। आज स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भारत अनेक कदम आगे बढ़ा है, लेकिन अभी नई ऊंचाइयों पर पहुंचना बाकी है। इसी लक्ष्य को पाने के लिए आज भारत के सवा सौ करोड़ लोग नए भारत के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। एक ऐसा नया भारत, जिसकी कल्पना नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने की थी। समाज के प्रत्येक स्तर पर देश का संतुलित विकास, प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र निर्माण का अवसर और राष्ट्र की प्रगति में उसकी भूमिका, नेताजी के विजन का एक अहम हिस्सा था। नेताजी ने कहा था, “हथियारों की ताकत और खून की कीमत से तुम्हें आजादी प्राप्त करनी है। फिर जब भारत आजाद होगा, तो देश के लिए तुम्हें स्थाई सेना बनानी होगी, जिसका काम होगा हमारी आजादी को हमेशा बनाए रखना।” आज भारत एक ऐसी सेना के निर्माण की तरफ बढ़ रहा है, जिसका सपना नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने देखा था। जोश, जुनून और जज्बा, हमारी सैन्य परम्परा का हिस्सा रहा है। अब तकनीक और आधुनिक हथियारी शक्ति भी उसके साथ जोड़ी जा रही है। सशस्त्र सेना में महिलाओं की बराबर की भागीदारी हो, इसकी नींव नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही रखी थी। देश की पहली सशस्त्र महिला रेजिमेंट, जिसे रानी झांसी रेजिमेंट के नाम से जाना जाता है, भारत की समृद्ध परम्पराओं के प्रति सुभाष बाबू के आगाध विश्वास का परिणाम था।
नेताजी जैसे महान व्यक्तित्वों के जीवन से हम सबको और खासकर युवाओं को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। लेकिन एक और बात जो सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो है अपने लक्ष्य के लिए अनवरत प्रयास। अपने संकल्पों को सिद्धि तक ले जाने की उनकी क्षमता अद्वितीय थी। अगर वो किसी काम के लिए एक बार आश्वस्त हो जाते थे, तो उसे पूरा करने के लिए किसी भी सीमा तक प्रयास करते थे। उन्होंने हमें ये बात सिखाई कि, अगर कोई विचार बहुत सरल नहीं है, साधारण नहीं है, अगर इसमें कठिनाइयां भी हैं, तो भी कुछ नया करने से डरना नहीं चाहिए। अगर हमें नेताजी को याद रखना है, तो संपूर्ण दुनिया में अपने प्रत्येक विचार, सिद्धांत, व्यवहार को किसी जन समूह के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने वाले संचारक के रूप में याद रखना चाहिए। आज भारत में जनसंचार के विभिन्न माध्यम हैं। आजादी के पूर्व सीमित संचार के साधनों के बाद भी नेताजी लोकप्रिय हुए। वे तब लोकप्रिय हुए, जब जन संचार की कोई अधोसंरचना उपलब्ध नहीं थी। भारत जैसी विविधता वाले देश में एक राष्ट्र की अवधारणा को बढ़ावा देने का कार्य एक कुशल संचारक ही कर सकता था और यह कार्य नेताजी ने किया। नेताजी ने अपने व्यक्तित्व के प्रयास से स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित, किसान, मजदूर, पूंजीपति, सभी को प्रभावित किया और देश की स्वतंत्रता के लिए सबको एक साथ पिरोने का कार्य किया।
आज जिस मॉर्डन इंडिया को हम देख पा रहे हैं, उसका सपना नेताजी ने बहुत पहले देखा था। भारत के लिए उनका जो विजन था, वो अपने समय से बहुत आगे का था। नेताजी कहा करते थे कि अगर हमें वाकई में भारत को सशक्त बनाना है, तो हमें सही दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है और इस कार्य में युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। एकता, अखंडता और आत्मविश्वास की हमारी ये यात्रा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आशीर्वाद से निरंतर आगे बढ़ रही है।
- प्रो. संजय द्विवेदी,
महानिदेशक,
भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली
उत्तर प्रदेश के शामली जिले के कैराना पहुंचे केंद्रीय गृह व सहकारिता मंत्री अमित शाह ने शनिवार को कहा कि यही कैराना है, जहां पलायन होता था, लेकिन अब पलायन कराने वाले खुद पलायन कर गए हैं। उन्होंने कहा कि 2014 के बाद वह पहली बार कैराना आये हैं, कोविड के कारण घर-घर जाकर संपर्क किया।
पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर लगातार जारी है। टिकट बंटवारे की भी शुरुआत हो चुकी है। राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा कर रहे हैं। इन सबके बीच चुनाव प्रचार भी शुरू हो गया है। प्रभासाक्षी के खास कार्यक्रम चाय पर समीक्षा में भी हमने इसी बात पर चर्चा की। कोविड-19 प्रोटोकॉल के पालन के साथ-साथ हमने उत्तर प्रदेश की राजनीति की वर्तमान परिस्थिति पर चर्चा की। सबसे पहला सवाल तो हमने प्रभासाक्षी के संपादक नीरज कुमार दुबे से यही पूछा कि क्या उत्तर प्रदेश में कोविड-19 प्रोटोकॉल का पालन किया जा रहा है? क्या चुनाव आयोग की ओर से जो रोड शो और रैलियों पर पाबंदी लगाई गई है उसको पालन किया जा रहा है? इसको लेकर नीरज दुबे ने साफ तौर पर कहा कि प्रत्यक्ष तौर पर देखें तो नेताओं की बड़ी चुनावी रैली या रोड शो तो नहीं हो रही है लेकिन दो टू डोर कैंपेन में भीड़ दिखाई दे रही है। इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा कि नेता जब नामांकन के लिए जा रहे हैं तो उनके साथ लोगों का हुजूम देखने को मिल रहा है जो कहीं ना कहीं प्रोटोकॉल का उल्लंघन है।
इसके बाद से हमने नीरज दुबे से उत्तर प्रदेश की वर्तमान राजनीतिक हालात पर चर्चा की। हमने यही सवाल किया कि जिस तरीके से भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच जुबानी जंग जारी है उससे किस तरह की परिस्थितियां फिलहाल राज्य में दिखाई दे रही है? नीरज दुबे ने साफ तौर पर कहा कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने-अपने समीकरणों को साधने के लिए दोनों ही दलों की ओर से जी तोड़ मेहनत की जा रही है। भाजपा की ओर से जहां पलायन और तुष्टीकरण का मुद्दा उठाया जा रहा है और समाजवादी पार्टी पर गुंडे और माफियाओं को टिकट देने का आरोप लगाया जा रहा है तो वहीं समाजवादी पार्टी और आरएलडी गठबंधन की ओर से भी एक खास वर्ग के लोगों को टिकट दिया जा रहा है। नीरज दुबे ने इस बात को भी स्वीकार किया कि आज से दो-तीन महीने पहले किसान आंदोलन को लेकर जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा के खिलाफ नाराजगी थी वह दिखाई नहीं दे रही है। कहीं ना कहीं भाजपा के लिए यह सकारात्मक संकेत हैं।
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की दावेदारी पर भी हमने बात की। प्रियंका गांधी की ओर से मुख्यमंत्री के चेहरे के दावेदार के रूप में खुद को प्रस्तुत करने को लेकर भी हमने नीरज दुबे से सवाल किया। इस पर नीरज दुबे ने साफ तौर पर कहा कि कहीं न कहीं कांग्रेस ने फिर साबित कर दिया कि वहां परिवारवाद हावी है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर से कांग्रेस ने अपने परिवार के ही चेहरे को आगे किया है। जब नीरज दुबे हमने पूछा कि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन उम्मीद के अनुरूप नहीं होता है तो क्या प्रियंका गांधी के पॉलिटिकल करियर के लिए इसे झटका माना जाएगा? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि जाहिर सी बात है कि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का प्रदर्शन ठीक नहीं रहता है तो प्रियंका गांधी को लेकर जो बातें कही जाती थी वह धरी की धरी रह जाएगी। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि कांग्रेस का नाराज जी-23 खेमा एक बार फिर से गांधी परिवार पर हमलावर हो सकता है। उन्होंने कहा कि प्रियंका गांधी जब उत्तर प्रदेश की महासचिव थीं तब उनके भाई को अपने गढ़ अमेठी से चुनाव हारना पड़ा था।
उत्तर प्रदेश में 3 बड़े नेताओं के अपने-अपने गढ़ से चुनाव लड़ने को लेकर भी हमने नीरज दुबे से सवाल किया। हमने पूछा कि बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने अपना पारंपरिक सीट छोड़कर नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का जो ऐलान किया था और उसके बाद उन्हें जो हार मिली, क्या उसके बाद से अब बड़े नेता अपने मजबूत क्षेत्र में ही चुनाव लड़ने पर मजबूर हो रहे हैं? इसके जवाब में नीरज दुबे ने कहा कि यह कारण तो हो ही सकता है। लेकिन साथ ही साथ उत्तर प्रदेश एक बड़ा प्रदेश है ऐसे में बड़े नेताओं पर प्रचार के ज्यादा जिम्मेदारी होती है। इसलिए ज्यादातर नेता अपने मजबूत क्षेत्र से ही चुनाव लड़ना चाहते हैं ताकि उन्हें अपने विधानसभा सीट के लिए बहुत ज्यादा समय नहीं देना पड़ेगा।
दूसरी ओर, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा ने अपना प्रचार तेज कर दिया है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह खुद प्रचार करने के लिए मैदान में उतर गये हैं तो शुक्रवार से भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाले हुए हैं और लगातार प्रचार कर रहे हैं तथा संगठनात्मक बैठकें कर रहे हैं। वहीं विधानसभा चुनावों में प्रचार के लिए भाजपा ने आज सुबह 403 प्रचार वाहनों को रवाना किया। यह प्रचार वाहन राज्य की सभी विधानसभा सीटों पर जाकर प्रदेश सरकार की उपलब्धियां बताएंगे। लखनऊ में पार्टी कार्यालय में आयोजित एक समारोह में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ने चुनावी अभियान रथ को झंडी दिखाकर रवाना किया। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने कहा कि 2017 के पहले प्रदेश में व्यापारी और अन्य लोग पलायन करते थे, लेकिन 2017 के बाद अपराधी पलायन कर रहे हैं।
सपा की सरकार बनी तो आईटी क्षेत्र में 22 लाख युवाओं को देंगे रोजगार: अखिलेश
समाजवादी पार्टी (सपा) के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने वादा किया कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की सरकार बनने पर राज्य के 22 लाख युवाओं को आईटी क्षेत्र में रोजगार दिया जाएगा। सपा महासचिव प्रोफेसर रामगोपाल यादव ने अखिलेश यादव के मैनपुरी की करहल विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की अधिकृत घोषणा की। अखिलेश यादव ने राज्य के 22 लाख युवाओं को आईटी क्षेत्र में रोजगार देने को लेकर घोषणा यहां आयोजित संवाददाता सम्मेलन में की। अखिलेश यादव ने कहा कि वर्ष 2022 में बाइसिकल का नारा साकार करने के लिए सपा आज संकल्प लेती है। आईटी सेक्टर में 22 लाख युवाओं को नौकरी देने का संकल्प लेते हैं, इसके लिए सरकार काम करेगी। जो सरकार 18 लाख लैपटॉप दे सकती है, वो सरकार इस दिशा में देर नहीं लगाएगी। यह नौकरी आईटी सेक्टर वालों को मिलेगी। उन्होंने कहा कि जो समाजवादी पार्टी 18 लाख लैपटॉप बांट सकती है उसको 22 लाख रोजगार आईटी के क्षेत्र में देने में समय नहीं लगेगा। आईटी सेक्टर के लिए पहला संकल्प हैं कि 22 लाख युवाओं को इस क्षेत्र में रोजगार दिया जाएगा।
अब पलायन कराने वाले खुद पलायन कर गए हैं: अमित शाह
उत्तर प्रदेश के शामली जिले के कैराना पहुंचे केंद्रीय गृह व सहकारिता मंत्री अमित शाह ने शनिवार को कहा कि यही कैराना है, जहां पलायन होता था, लेकिन अब पलायन कराने वाले खुद पलायन कर गए हैं। उन्होंने कहा कि 2014 के बाद वह पहली बार कैराना आये हैं, कोविड के कारण घर-घर जाकर संपर्क किया। शाह के मुताबिक, इस दौरान पलायन पीड़ित परिवार ने उनसे कहा कि अब हमें कोई डर नहीं हैं, हम शांति के साथ व्यापार कर रहे हैं, हमें पलायन कराने वाले पलायन कर गये हैं। उन्होंने मीडिया से बातचीत में कहा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने विकास की गति को तेज किया है। पूरे देश में विकास की लहर दिखाई देती है। हर गरीब को सुविधाएं दी जा रही हैं। शाह ने कहा कि वर्ष 2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार बनने व 2017 में प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनने पर समग्र विकास हुआ है। केंद्रीय मंत्री ने कहा कि आज मैं कैराना में पलायन पीड़ित मित्तल परिवार के साथ बैठा, परिवार के 11 लोग मौजूद थे। वे सभी पहले पलायन कर गए थे और अब यहां दोबारा आकर सुरक्षित माहौल में अपना व्यापार कर रहे हैं।
- अंकित सिंह
पिछले कुछ महीनों में चीन से वस्तुओं के आयात में कुछ कमी देखी गई थी और इसके लिए देश में एक तरह से आंदोलन भी चलाया गया था क्योंकि चीन, भारत से जुड़ती अपनी सीमाओं पर सेनाओं की तैनाती कर भारत पर लगातार दबाव बनाए हुए है।
भारत से अप्रैल-दिसम्बर 2021 तक की अवधि में वस्तुओं एवं सेवाओं के हुए निर्यात के वास्तविक आंकड़ों को देखते हुए अब यह कहा जा सकता है कि वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात 65,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के पार हो जाने की प्रबल सम्भावना है। जिस गति से वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं के निर्यात बढ़ रहे हैं उससे अब यह माना जा रहा है कि वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात 100,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को पार कर सकता है, जोकि अपने आप में एक इतिहास रच देगा।
वित्तीय वर्ष 2021-22 की अप्रैल-दिसम्बर 2021 को समाप्त अवधि के दौरान भारत से 29,974 करोड़ अमेरिकी डॉलर की वस्तुओं का निर्यात किया जा चुका है एवं पूरे वित्तीय वर्ष के दौरान यह बढ़कर 40,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाने की प्रबल सम्भावना है। अप्रैल-दिसम्बर 2020 को समाप्त अवधि के दौरान भारत से 20,137 करोड़ अमेरिकी डॉलर की वस्तुओं का निर्यात हुआ था, अर्थात इस वर्ष वस्तुओं के निर्यात में 48.85 प्रतिशत की आकर्षक वृद्धि दर रही है। इसी प्रकार वित्तीय वर्ष 2021-22 की अप्रैल-दिसम्बर 2021 को समाप्त अवधि के दौरान भारत से 17,900 करोड़ अमेरिकी डॉलर की सेवाओं का निर्यात किया जा चुका है एवं पूरे वित्तीय वर्ष के दौरान यह बढ़कर 25,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो जाने की प्रबल सम्भावना है।
भारत सहित पूरे विश्व में ओमीक्रोन संक्रमण के फैलने के बावजूद, दिसम्बर 2021 माह में वस्तुओं का निर्यात, 37 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए, 3,729 करोड़ अमेरिकी डॉलर के रिकॉर्ड मासिक स्तर पर पहुंच गया है। दिसम्बर 2020 माह में देश से वस्तुओं का निर्यात 2,722 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था एवं दिसम्बर 2019 माह में 2,711 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था। दिसम्बर 2021 माह में इंजिनीरिंग वस्तुओं, पेट्रोलीयम उत्पाद, जेम्स एवं ज्वेलरी, केमिकल एवं यार्न के निर्यात में आकर्षक वृद्धि अर्जित की गई है। इन समस्त क्षेत्रों में श्रम की मांग अधिक रहती है एवं इन क्षेत्रों में निर्यात की अधिक वृद्धि होना मतलब रोजगार के नए अवसरों का अधिक निर्माण होना भी है, जोकि हम सभी के लिए हर्ष का विषय होना चाहिए। दूसरे, कुछ राज्यों, विशेष रूप से उत्तर प्रदेश की देश से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में हिस्सेदारी बहुत तेजी से बढ़ रही है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में उत्तर प्रदेश से 2 लाख करोड़ रुपए का निर्यात (60 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि) होने की सम्भावना है जो वित्तीय वर्ष 2020-21 में 123,000 करोड़ रुपए का रहा था।
हालांकि कोरोना महामारी की तीसरी लहर ने विशेष रूप से विकसित देशों यथा अमेरिका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, आदि एवं यूरोपीयन देशों तथा मध्य पूर्वीय देशों को बहुत अधिक प्रभावित किया है। इसके कारण समुद्री जहाजों की उपलब्धता पर विपरीत प्रभाव पड़ा है एवं वैश्विक स्तर पर वस्तुओं के आयात एवं निर्यात भी विपरीत रूप से प्रभावित हो रहे हैं। परंतु, अब उम्मीद की जा रही है कि विश्व के समस्त देश मिलकर इस समस्या का हल निकाल लेंगे क्योंकि अब धीमे धीमे कई देशों में लॉकडाउन के नियमों में ढील देना प्रारम्भ हो गया है क्योंकि इन देशों में अब तीसरी लहर का प्रभाव भी कम होता जा रहा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में चूंकि आर्थिक गतिविधियां अब तेजी से बढ़ रही हैं अतः इस तेजी के चलते देश में वस्तुओं के आयात में भी अत्यधिक वृद्धि दर्ज हो रही है। वित्तीय वर्ष 2021-22 की अप्रैल-दिसम्बर 2021 को समाप्त अवधि में भारत के आयात 69.27 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 44,371 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गए हैं जो वित्तीय वर्ष 2020-21 की अप्रैल-दिसम्बर 2020 को समाप्त अवधि में 26,213 करोड़ अमेरिकी डॉलर के रहे थे। इस प्रकार व्यापार घाटे का स्तर भी बढ़कर 14,397 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया। जोकि देश के लिए एक चिंता का विषय होना चाहिए।
दिसम्बर 2021 माह में 5,927 करोड़ अमेरिकी डॉलर की वस्तुओं का आयात किया गया है जोकि दिसम्बर 2020 माह में हुए आयात की तुलना में 38.06 प्रतिशत अधिक है। इससे दिसम्बर 2021 माह में व्यापार घाटा भी बढ़कर 2,199 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है जबकि दिसम्बर 2020 में व्यापार घाटा 1,572 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था। व्यापार घाटा में लगातार तेजी से वृद्धि हो रही है। इससे देश के विदेशी पूंजी के संचय पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। भारत द्वारा ऐसे उत्पादों की पहचान की जा रही है जिनका आयात बहुत अधिक मात्रा में हो रहा है, एवं इन उत्पादों (जैसे सुरक्षा उत्पाद, एडिबल ओईल, आदि) का निर्माण भारत में ही किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
हमारे लिए चिंता का विषय एक और है। पिछले कुछ महीनों में चीन से वस्तुओं के आयात में कुछ कमी देखी गई थी और इसके लिए देश में एक तरह से आंदोलन भी चलाया गया था क्योंकि चीन, भारत से जुड़ती अपनी सीमाओं पर सेनाओं की तैनाती कर भारत पर लगातार दबाव बनाए हुए है। परंतु, अब पुनः चीन से वस्तुओं के आयात में बहुत अधिक वृद्धि दर्ज हुई है और व्यापार घाटे पर भी दबाव बढ़ गया है। चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा वित्तीय वर्ष 2004-05 में मात्र 150 करोड़ अमेरिकी डॉलर का था जो वित्तीय वर्ष 2013-14 में बढ़कर 3,600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया। वित्तीय वर्ष 2014-15 में और अधिक बढ़कर 4,800 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया था। परंतु, वित्तीय वर्ष 2020-21 में घटकर 4,400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया था। अब पुनः व्यापार घाटा वित्तीय वर्ष 2021-22 के अप्रैल-दिसम्बर 2021 को समाप्त 9 माह की अवधि में बढ़कर 6,938 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। इस अवधि में भारत और चीन के बीच विदेशी व्यापार 12,566 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। चीन से भारत को वस्तुओं निर्यात 46.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 9,752 करोड़ अमेरिकी डॉलर के स्तर पर पहुंच गया है जबकि भारत से चीन को वस्तुओं का निर्यात 34.2 प्रतिशत की वृद्धि के साथ 2,814 करोड़ अमेरिकी डॉलर का ही रहा है। इस प्रकार व्यापार घाटा बढ़कर 6,938 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। हालांकि यह भी कहा जा रहा है कि भारत में फैली कोरोना महामारी के दौरान चीन से चिकित्सा दवाईयों के लिए कच्चा माल एवं अन्य चिकित्सा उत्पादों का आयात बहुत ही मजबूरी में करना पड़ा था। जिसके चलते चीन से वस्तुओं के आयात में अत्यधिक वृद्धि देखने में आई है।
भारत पिछले 10 वर्षों से चीन के साथ लगातार बढ़ रहे व्यापार घाटे को कम करने के लिए प्रयास करता रहा है। परंतु, चीन अभी तक भारत के आग्रह को अनसुना करता रहा है। चीन यदि भारतीय उत्पादों विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी एवं फार्मा उत्पाद का भारत से आयात बढ़ाता है तो इस व्यापार घाटे को कम किया जा सकता है। परंतु चीन अभी भी इस दिशा में कोई कदम उठाता दिख नहीं रहा है। अतः इस प्रकार तो चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा लगातार बढ़ता ही जाएगा। भारत को भी चीन से वस्तुओं के आयात को कम करने के बारे में अब और अधिक गम्भीरता से विचार करना चाहिए।
भारत द्वारा विश्व के अन्य मित्र देशों के साथ अब मुक्त व्यापार समझौते भी किए जा रहे हैं। इससे भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात आगे आने वाले समय में और अधिक द्रुत गति से आगे बढ़ेगा। यूनाइटेड अरब अमीरात से मुक्त व्यापार समझौता अपने अंतिम चरण में है। आस्ट्रेलिया के साथ भी मुक्त व्यापार समझौते की प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ रही है और श्रम आधारित उद्योगों जैसे टेक्स्टायल उद्योग, फार्मा क्षेत्र, चमड़ा उद्योग, जूतों का निर्माण एवं कृषि उत्पादों के लिए आस्ट्रेलिया द्वारा बाजार खोलने के लिए चर्चाओं में विशेष जोर दिया जा रहा है। हाल ही के समय में आस्ट्रेलिया से तो विदेशी व्यापार में 102 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है, इसी प्रकार दक्षिणी अफ्रीका से विदेशी व्यापार में भी 82 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है, यूनाइटेड अरब अमीरात से भी विदेशी व्यापार में 65 प्रतिशत की आकर्षक वृद्धि दर्ज हुई है। इसी प्रकार के मुक्त व्यापार समझौते ब्रिटेन, कनाडा एवं इजराईल आदि देशों के साथ भी किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं। जिसके चलते, वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत से वस्तुओं एवं सेवाओं के एक लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर के निर्यात के आंकड़े को प्राप्त करने में आसानी होगी। इस प्रकार, यह इतिहास अगले वर्ष अर्थात् वर्ष 2022-23 में बनाया जा सकता है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
पहले बात बिजली की कि जाए तो बिजली यूपी की सियासत में हमेशा से सुर्खियां बटोरता रहा है। कभी राजनैतिक पार्टियां चुनाव आते ही अपने घोषणापत्र में गांवों में 6 से 8 घंटे और शहरी क्षेत्रों में 12 से 16 घंटे बिजली देने का वादा करती थीं।
समाजवादी पार्टी के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव अपने आप को बहुत बड़ा तकनीकविद् मानते हैं, इंजीनियरिंग की पढ़ाई की है तो ऐसा होना स्वभाविक भी है। अखिलेश युवा नेता तो हैं ही। विकास की बड़ी-बड़ी बातें और दावे करते हुए बहुत शान से बताते हैं कि उनकी सरकार में यूपी का कितना विकास हुआ था। वह यह तक कहने से गुरेज नहीं करते हैं कि योगी सरकार जितने भी विकास कार्यों को गिना रही है, दरसअल वह उनके शासनकाल में ही शुरू किए गए थे। चुनाव प्रचार जब शुरू हुआ था, तब अखिलेश यादव प्रदेश की योगी सरकार को विकास के मुद्दे पर घेर रहे थे। योगी सरकार को नाकारा साबित कर रहे थे, अखिलेश के विकास वाले दांव से बीजेपी बैकफुट पर नजर आने लगी थी। लेकिन बीजेपी ने अपना ‘स्टैंड’ नहीं बदला, बीजेपी नेता विकास की बात करते रहे तो साथ में हिन्दुत्व का अलख भी जलाते और अखिलेश को कभी परिवार की आड़ में तो कभी तुष्टिकरण के बहाने घेरते रहते थे। अखिलेश को उनके राज में प्रदेश में फैली अराजकता, गंडागर्दी, साम्प्रदायिक हिंसा और पश्चिमी यूपी में हिन्दुओं के पलायन की याद दिलाई जाती। यह बताया जाता कि समाजवादी सरकार में बहू-बेटियों का घर से निकलना मुश्किल हो गया था। गुंडे-माफिया तांडव कर रहे थे। सपा राज में सरकारी भ्रष्टाचार के लिए भी उन पर तंज कसा जाता। जनता को यह बताया जाता कि जब सपा राज में यूपी में कहीं नौकरी निकलती थी तो पूरा समाजवादी कुनबा चाचा-भतीजे सब वसूली करने के लिए निकल पड़ते थे।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव पर सबसे ज्यादा हमला बीजेपी की तरह से हो रहा था और हो रहा है, कांग्रेस और बसपा कभी-कभी ही अखिलेश के खिलाफ मुंह खोलते हैं। वहीं अखिलेश भी बीजेपी और योगी सरकार के खिलाफ हमलावर हैं। वह तो कांग्रेस और बसपा को लड़ाई में मानते ही नहीं हैं। एक तरह बीजेपी हिन्दुत्व का कार्ड खेल रही है तो दूसरी ओर अखिलेश यादव न खुलकर हिन्दुओं के पक्ष में बोल रहे हैं, न ही मुसलमानों के पक्ष में। एक तरह से अखिलेश दुधारी तलवार पर चल रहे थे, लेकिन अखिलेश यादव ने जैसे ही प्रथम चरण के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए प्रत्याशियों की पहली लिस्ट जारी की सबको इस बात का विश्वास हो गया कि अखिलेश का मिजाज बदला नहीं है।
सपा प्रमुख को लग रहा था कि वह जनता की नाराजगी को भुनाकर और मुसलमानों को लुभा कर सत्ता हासिल कर लेंगे। लेकिन यह दांव सही नहीं पड़ने पर अखिलेश अब वोटरों को फ्री के झांसे में फंसाकर चुनाव जीतने की राह पर चल दिए हैं। पहले तीन सौ यूनिट फ्री बिजली देने की बात की। अब वह कह रहे हैं कि उनकी सरकार बनी तो यूपी के सरकारी कर्मचारियों की पुरानी पेंशन की बहाली होगी। फिलहाल 2005 के बाद से नियुक्त हुए सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन व्यवस्था का फायदा नहीं मिल रहा है। मगर सवाल यह है कि अब क्यों अखिलेश पेंशन बहाली की बात कह रहे हैं। पेंशन बहाली की मांग तो कर्मचारी तब से कर रहे हैं जब 2012 से 2017 तक प्रदेश में अखिलेश की सरकार रही थी। सरकारी कर्मचारी कई बार पुरानी पेंशन व्यवस्था लागू कराने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री से मिले भी थे। परंतु तब उन्होंने हाथ खड़े कर दिए थे। इसके साथ ही अखिलेश दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार बनी तो सरकारी कर्मचारियों के लिए कैशलैस इलाज की भी व्यवस्था शुरू कर दी जाएगी, जिसका आदेश अखिलेश की पूर्ववर्ती सरकार ने दिया था, लेकिन वह आरोप लगा रहे हैं कि योगी सरकार ने इस व्यवस्था को लागू नहीं किया।
पहले बात बिजली की कि जाए तो बिजली यूपी की सियासत में हमेशा से सुर्खियां बटोरता रहा है। कभी राजनैतिक पार्टियां चुनाव आते ही अपने घोषणापत्र में गांवों में 6 से 8 घंटे और शहरी क्षेत्रों में 12 से 16 घंटे बिजली देने का वादा करती थीं। कुछ बड़े नेताओं के जिलों को वीआईपी घोषित कर 24 घंटे बिजली दी जाती थी, इसीलिए रायबरेली, अमेठी, रामपुर, मैनपुरी जैसे तमाम वीआईपी जिलों में 24 घंटे बिजली आती थी, जबकि पूरा प्रदेश त्राहिमाम करता रहता था।
फ्री की बिजली के बहाने किसानों पर डोरे डालते हुए अखिलेश ने उनकी भी नलकूप की बिजली फ्री करने की बात कही थी। इससे पूर्व 28 दिसंबर 2021 को उन्नाव में अखिलेश यादव ने कहा कि अगर 2022 में उनकी सरकार बनती है तो साइकिल से चलने वालों की अगर एक्सीडेंट में मौत हो जाती है तो सपा सरकार उनके परिवार को पांच लाख रुपये की आर्थिक मदद देगी। इससे पूर्व 18 दिसंबर को रायबरेली में जनसभाओं के दौरान उन्होंने घोषणा की थी कि समाजवादी पार्टी की सरकार बनेगी तो सभी गरीबों को हमेशा मुफ्त राशन दिया जाएगा। बहनों और महिलाओं को 500 की जगह 1500 रुपये समाजवादी पेंशन दी जाएगी। 07 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी कांड पर सियासत तेज करते हुए अखिलेश ने कहा था कि सपा सरकार बनने पर पीड़ित परिवारों को दो-दो करोड़ की आर्थिक मदद और नौकरी दी जाएगी। अखिलेश ने पीड़ित परिवारों से कहा था कि यूपी सरकार मदद नहीं करती हे तो सपा सरकार बनने पर पूरी मदद की जाएगी।
वैसे समाजवादी पार्टी अकेले नहीं हैं जो खैरात की सियासत कर रही है, करीब-करीब सभी दल खैरात बांटने के बड़े-बड़े दावे करने में लगे हैं। कांग्रेस की यूपी प्रभारी प्रियंका वाड्रा भी इसी तरह की कभी नहीं पूरी हो सकने वाली कई घोषणाएं कर चुकी हैं। आम आदमी पार्टी ने तो सपा से पहले ही तीन सौ यूनिट फ्री बिजली की बात कह दी थी। अर्थशास्त्रियों का कहना हैं कि खैरात की सियासत देश के लिए किसी नासूर से कम नहीं है। वहीं राजनीति के जानकार कहते हैं कि जो दल या नेता सत्ता की दौड़ में काफी पीछे होता है या फिर सत्तारुढ़ पार्टी के सामने पिछड़ने लगता है, वह इस तरह की घोषणाएं ज्यादा करता है। राजनीति के जानकारों की इस बात में दम भी है जो सत्ता की लड़ाई से दूर होता है, उसे पता होता है कि सत्ता तो उसकी आ नहीं रही है, इसलिए उनके ऊपर चुनावी वायदे पूरा करने की भी कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। बात समाजवादी पार्टी की कि जाए तो उसने भी तबसे खैरात की राजनीति को ज्यादा परवान देना शुरू किया है, जबसे उसे लगने लगा है कि वह थोड़े अंतर से सत्ता से दूर रह सकती है। इसी अंतर को दूर करने के लिए खैरात बांटने का खेल खेला जा रहा है।
-अजय कुमार
ताजा रिपोर्ट के चौंकाने वाले तथ्य हैं कि कोरोना महामारी के बावजूद दुनिया भर में धनपतियों का खजाना तेजी से बढ़ा है। भारत में भले 84 फीसदी परिवारों की आमदनी महामारी की वजह से कम हो गई, लेकिन अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है।
गरीबी-अमीरी के असंतुलन को कम करने की दिशा में काम करने वाली वैश्विक संस्था ऑक्सफैम ने अपनी ताजा आर्थिक असमानता रिपोर्ट में समृद्धि के नाम पर पनप रहे नये नजरिया, विसंगतिपूर्ण आर्थिक संरचना एवं अमीरी गरीबी के बीच बढ़ते फासले की तथ्यपरक प्रभावी प्रस्तुति देते हुए इसे घातक बताया है। आज देश एवं दुनिया की समृद्धि कुछ लोगों तक केन्द्रित हो गयी है, भारत में भी ऐसी तस्वीर दुनिया की तुलना में अधिक तीव्रता से देखने को मिल रही है। देश में मानवीय मूल्यों और आर्थिक समानता को हाशिये पर डाल दिया गया है और येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही सबसे बड़ा लक्ष्य बनता जा रहा है। आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या इस प्रवृत्ति के बीज हमारी परंपराओं में रहे हैं या यह बाजार के दबाव का नतीजा है? कहीं शासन-व्यवस्थाएं गरीबी दूर करने का नारा देकर अमीरों को प्रोत्साहन तो नहीं दे रही है? इस तरह की मानसिकता राष्ट्र को कहां ले जाएगी? ये कुछ प्रश्न ऑक्सफैम की आर्थिक असमानता रिपोर्ट के सन्दर्भ महत्त्वपूर्ण हैं, आम बजट से पूर्व इस रिपोर्ट का आना और उसके तथ्यों पर मंथन जरूरी है।
ताजा रिपोर्ट के चौंकाने वाले तथ्य हैं कि कोरोना महामारी के बावजूद दुनिया भर में धनपतियों का खजाना तेजी से बढ़ा है। भारत में भले 84 फीसदी परिवारों की आमदनी महामारी की वजह से कम हो गई, लेकिन अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। इतना ही नहीं, मार्च 2020 से लेकर 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की आमदनी में करीब 30 लाख करोड़ रुपये का इजाफा हुआ है और वह 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक नए भारतीय अति-गरीब बनने को विवश हुए।
इस रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया है कि पूरे विश्व में आर्थिक असमानता बहुत तेजी से फैल रही है। अमीर बहुत तेजी से ज्यादा अमीर हो रहे हैं। साम्राज्यवाद की पीठ पर सवार पूंजीवाद ने जहां एक ओर अमीरी को बढ़ाया है तो वहीं दूसरी ओर गरीबी भी बढ़ती गई है। यह अमीरी और गरीबी का फासला कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है जिसके परिणामों के रूप में हम आतंकवाद को, नक्सलवाद को, सांप्रदायिकता को, प्रांतीयता को देख सकते हैं, जिनकी निष्पत्तियां समाज में हिंसा, नफरत, द्वेष, लोभ, गलाकाट प्रतिस्पर्धा, रिश्तों में दरारें आदि के रूप में देख सकते हैं। सर्वाधिक प्रभाव पर्यावरणीय असंतुलन एवं प्रदूषण के रूप में उभरा है। चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से बड़े और तथाकथित संपन्न लोग ही नहीं बल्कि देश का एक बड़ा तबका मानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो गया है। अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई तब तक नहीं कम होगी, जब तक सरकार की तरफ से इसको लेकर ठोस कदम नहीं उठाए जाते हैं। असमानता दूर करने के लिए सरकार को गरीबों के लिए विशेष नीतियां अमल में लानी होगी।
वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम के सालाना सम्मेलन एवं भारत के आम बजट के आसपास ऑक्सफेम इस तरह की रिपोर्ट जारी कर बताना चाहता है कि भले वर्ल्ड इकनॉमिक फोरम पूंजीपतियों की वकालत करे, लेकिन उसका मुख्य उद्देश्य दुनिया में बढ़ आर्थिक असमानता को दूर करने का भी होना चाहिए। अमीरी और गरीबी की बढ़ती खाई को पाटना जरूरी इसलिये भी है कि पिछले दो वर्षों से हम महामारी से गुजर रहे हैं और यह उम्मीद थी कि कम से कम कोरोना काल में गरीबों को ज्यादा मदद दी जाएगी और उनकी आमदनी सुरक्षित रखी जाएगी। मगर ऐसा नहीं हुआ। आंकड़े यही बता रहे हैं कि महामारी में जिस वर्ग ने सबसे ज्यादा फायदा उठाया, वह धनाढ्य वर्ग है। उसकी संपत्ति और आमदनी बढ़ी है, जबकि गरीबों का जीना और दुश्वार हो गया है। इसके लिए सरकारों को निचले तबके की आमदनी में इजाफा करने और धनाढ्य तबके से जायज टैक्स वसूलने की कोशिश करनी होगी।
आर्थिक असमानता घटाने का तरीका ही यही है कि मजदूरों को उनकी वाजिब मजदूरी मिले, खेती करने वालों को अपनी उपज का उचित दाम मिले, मजदूरों को खून-पसीने की कमाई मिले और कोई भी इंसान व्यवस्था का लाभ उठाकर जरूरत से ज्यादा अपनी तिजोरी न भर सके। ऐसा होने से समाज में एक विद्रोह पनपेगा, जो हिंसक क्रांति का कारण बनेगा। भारत में सरकार की नीतियां गरीब दूर करने का स्वांग करती है। असलियत में सरकार अमीरों को ही लाभ पहुंचाती है। वर्ष 2019 में केंद्र सरकार ने टैक्स में छूट देकर देश के पूंजीपति वर्ग को दो लाख करोड़ रुपये की माफी दे दी। मदद की जरूरत धनाढ्यों को नहीं, गरीबों को थी। असंगठित क्षेत्र के लोग थे, जिनको सहायता मिलनी चाहिए थी। मगर वे मुंह ताकते रह गए और मलाई धनाढ्य ले उड़े। सच यही है कि पिछले पांच साल से लोगों की वास्तविक आमदनी नहीं बढ़ी है। मनरेगा की मजदूरी, जो सरकार खुद तय करती है, वह भी बाजार में मिलने वाली मजदूरी से कम है। जबकि इसके बरक्स शेयर बाजार नित नई ऊंचाइयों पर दिखने लगा है। इन सबसे स्वाभाविक तौर पर अमीरी-गरीबी के बीच की खाई बढ़ रही है।
हमारे देश में जरूरत यह नहीं है कि चंद लोगों के हाथों में ही बहुत सारी पूंजी इकट्ठी हो जाये, पूंजी का वितरण ऐसा होना चाहिए कि विशाल देश के लाखों गांवों को आसानी से उपलब्ध हो सके। लेकिन क्या कारण है कि महात्मा गांधी को पूजने वाले सत्ताशीर्ष का नेतृत्व उनके ट्रस्टीशीप के सिद्धान्त को बड़ी चतुराई से किनारे कर रखा है। यही कारण है कि एक ओर अमीरों की ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी ओर फुटपाथों पर रेंगती गरीबी। एक ओर वैभव ने व्यक्ति को विलासिता दी और विलासिता ने व्यक्ति के भीतर क्रूरता जगाई, तो दूसरी ओर गरीबी तथा अभावों की त्रासदी ने उसके भीतर विद्रोह की आग जला दी। वह प्रतिशोध में तपने लगा, अनेक बुराइयां बिन बुलाए घर आ गईं। अर्थ की अंधी दौड़ ने व्यक्ति को संग्रह, सुविधा, सुख, विलास और स्वार्थ से जोड़ दिया। नई आर्थिक प्रक्रिया को आजादी के बाद दो अर्थों में और बल मिला। एक तो हमारे राष्ट्र का लक्ष्य समग्र मानवीय विकास के स्थान पर आर्थिक विकास रह गया। दूसरा सारे देश में उपभोग का एक ऊंचा स्तर प्राप्त करने की दौड़ शुरू हो गई है। इस प्रक्रिया में सारा समाज ही अर्थ प्रधान हो गया है।
समाज को अर्थ नहीं, जीवन प्रधान बनाना होगा। इसके लिये सरकारों को लंबी अवधि और छोटी अवधि, दोनों के लिए योजनाएं बनानी होंगी। अल्पावधि कार्यक्रमों में जहां असंगठित क्षेत्र को समर्थन देना, उस तक सीधी नकदी पहुंचाना बहुत जरूरी है, मनरेगा जैसी योजनाओं का बजट बढ़ाना भी जरूरी है, ताकि मजदूर वर्ग तक नकद राशि पहुंचे। हमारे गांवों में एक बड़ा तबका अब भी कृषि पर आधारित है। उन लोगों की आमदनी बढ़ाने के लिए जरूरी है कि उनकी लागत कम की जाए और आय बढ़ाई जाए। दीर्घावधि की योजनाओं में शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और रोजगार पर खर्च करने की जरूरत है। जबकि सरकारें इन जीवन से जुड़ी सेवाओं को अपने हाथ में रखने की बजाय निजी क्षेत्रों को सौंप रही है, जिससे ये सेवाएं अब व्यवसाय हो गयी है। इस प्रक्रिया में सारी सामाजिक मान्यताओं, मानवीय मूल्यों, मर्यादाओं को ताक पर रखकर कैसे भी धन एकत्र कर लेने को सफलता का मानक माने जाने लगा है जिससे राजनीति, साहित्य, कला, धर्म सभी को पैसे की तराजू पर तोला जाने लगा है। इस प्रवृत्ति के बड़े खतरनाक नतीजे सामने आ रहे हैं। अब तक के देश की आर्थिक नीतियां और विकास का लक्ष्य चंद लोगों की समृद्धि में चार चांद लगाना हो गया है। चंद लोगों के हाथों में समृद्धि को केन्द्रित कर भारत को महाशक्ति बनाने का सपना भी देखा जा रहा है। संभवतः यह महाशक्ति बनाने की बजाय हमें कमजोर राष्ट्र के रूप में आगे धकेलने की तथाकथित कोशिश है।
-ललित गर्ग
अदालत ने गुजरात सरकार से पूछा है कि उसने 4 हजार अर्जियों को किस आधार पर रद्द किया है। अदालत ने कहा है कि किसी भी अर्जी को रद्द किया जाए तो उसका कारण बताया जाए और अर्जी भेजने वालों को समझाया जाए कि उस कमी को वे कैसे दूर करें?
सर्वोच्च न्यायालय ने उन प्रदेश-सरकारों को कड़ी झाड़ लगाई है, जिन्होंने कोरोना महामारी के शिकार लोगों के परिवारों को अभी तक मुआवजा नहीं दिया है। सर्वोच्च न्यायालय का आदेश था कि प्रत्येक मृतक के परिवार को 50 हजार रु. का मुआवजा दिया जाए। सभी राज्यों ने कार्रवाई शुरू कर दी लेकिन उसमें दो परेशानियां दिखाई पड़ीं। एक तो यह कि मृतकों की संख्या कम थी लेकिन मुआवजों की मांग बहुत ज्यादा हो गई। दूसरी परेशानी यह कि मृतकों की जितनी संख्या सरकारों ने घोषित की थी, उनकी तुलना में मुआवजे की अर्जियां बहुत कम आईं। जैसे हरियाणा में मृतकों का सरकारी आंकड़ा था- 10,077 लेकिन अर्जियां आईं सिर्फ 3003 और पंजाब में 16,557 के लिए अर्जियां सिर्फ 8786 अर्जियां। जबकि कुछ राज्यों में इसका उल्टा हुआ। जैसे महाराष्ट्र में मृत्यु-संख्या 1,41,737 थी लेकिन अर्जियां आ गई 2 लाख 13 हजार ! ऐसा ज्यादातर राज्यों में हुआ है।
ऐसी स्थिति में कुछ राज्यों में मुआवजे का भुगतान आधे लोगों को भी अभी तक नहीं हुआ है। इसी बात पर अदालत ने अपनी गंभीर नाराजगी जताई। उसने बिहार और आंध्र प्रदेश के मुख्य सचिवों को तगड़ी फटकार लगाई और उन्हें कहा कि वे अपनी जिम्मेदारी शीघ्र नहीं पूरी करेंगे तो अदालत अगला सख्त कदम उठाने पर मजबूर हो जाएगी। जजों ने यह भी कहा कि आपकी सरकार ने महामारी के शिकार मृतकों के जो आंकड़े जारी किए हैं, उनकी प्रामाणिकता संदेहास्पद है। उन्होंने बिहार जैसे प्रांत में मृतक-संख्या सिर्फ 12 हजार कैसे हो सकती है? अदालत ने गुजरात सरकार से पूछा है कि उसने 4 हजार अर्जियों को किस आधार पर रद्द किया है। अदालत ने कहा है कि किसी भी अर्जी को रद्द किया जाए तो उसका कारण बताया जाए और अर्जी भेजने वालों को समझाया जाए कि उस कमी को वे कैसे दूर करें?
अदालत ने सबसे ज्यादा चिंता उन बच्चों की की है, जिनके माता और पिता, दोनों ही महामारी के शिकार हो गए हैं। ऐसे अनाथ बच्चों के जीवन-यापन, शिक्षा और रख-रखाव की व्यवस्था का सवाल भी अदालत ने उठाया है। उसने सरकारों से यह भी कहा है कि वे गांव और शहरों में रहने वाले गरीब और अशिक्षित परिवारों को मुआवजे की बात से परिचित करवाने का विशेष प्रयत्न करें। मान लें कि अदालत ने उन कुछ अर्जियों का जिक्र नहीं किया, जो फर्जी भी हो सकती हैं तो भी क्या? ऐसी गैर-कोरोना मौतों के नाम पर मुआवजा शायद ही कोई लेना चाहेगा और चाहेगा तो भी वही चाहेगा, जो बेहद गरीब होगा। ऐसे में भी राज्य उदारता दिखा दे तो कुछ अनुचित नहीं होगा।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक