संपादकीय

संपादकीय (272)

खासकर समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटरों और प्रत्याशियों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित है। उसको लगता है कि मुस्लिम प्रत्याशी सपा के लिए तुरूप का इक्का साबित होगा। इसीलिए उसने बड़ी संख्या में दागी-दबंगों और दंगाइयों तक को टिकट बांट दिए हैं।

 

उत्तर प्रदेश में कोई भी चुनाव हो मुस्लिम वोटर हमेशा एक बड़ा फैक्टर रहते हैं। यूपी की कुल आबादी में करीब 20 प्रतिशत हिस्सा मुसलमानों का बताया जाता है। (हालांकि कभी अलग से प्रदेश में मुसलमानों की कितनी आबादी है इसकी गणना नहीं की गई है)। बीस फीसदी मुसलमान, कोई इतना बड़ा संख्या बल नहीं है कि यह किसी प्रत्याशी की हार-जीत में अहम किरदार निभा सके, लेकिन मुस्लिम वोटर जिस तरह से एकजुट होकर किसी राजनैतिक दल के प्रत्याशी को हराने या फिर जिताने के लिए वोटिंग करते हैं, वह कई बार निर्णायक साबित होता है। मुस्लिम वोटरों के बारे में एक और आम धारणा यह है कि वह भारतीय जनता पार्टी को कभी जीतते हुए नहीं देखना चाहते हैं, इसीलिए जो प्रत्याशी या दल भाजपा से टक्कर लेता नजर आता है, मुसलमान उसी के पक्ष में एक मुश्त वोटिंग कर देते हैं। इसीलिए जब तक मुसलमान वोटर कांग्रेस के साथ खड़ा रहा तब तक यूपी में कांग्रेस की सरकार सहज रूप से बन जाती थी, लेकिन 1992 में अयोध्या में जिस तरह से ढाँचे को कारसेवकों ने धवस्त कर दिया, उसके बाद से मुस्लिमों का विश्वास कांग्रेस से खिसक गया। क्योंकि 06 दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में ढांचा गिरा तब यूपी में भले बीजेपी की सरकार थी और कल्याण सिंह उसके मुख्यमंत्री थे, लेकिन केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी और नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। अयोध्या में कारसेवक विवादित ढाँचे को गिराने की हुंकार भर रहे थे, लेकिन राव साहब वहां कोई कार्रवाई करने या फिर यूपी सरकार को कोई नसीहत देने की बजाय पूजा-पाठ करते रहे थे। उनकी पूजा तब खत्म हुई जब कारेसेवकों ने विवादित ढाँचे को पूरी तरह से गिरा दिया। इसका हश्र यह हुआ कि मुसलमानों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और इसी के साथ यूपी में कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हो गए जो अभी तक जारी हैं।

यूपी में मुस्लिम वोट बैंक कांग्रेस से खिसका तो समाजवादी पार्टी ने मुस्लिम वोटरों को लपकने में समय नहीं लगाया, वैसे भी 1990 में जब कारसेवक विवादित ढाँचा गिराने अयोध्या पहुंचे थे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने कारसेवकों पर गोलियां चलाकर ढाँचे को कथित रूप से शहीद होने से बचा लिया था। इसी के बाद से मुलायम मुसलमानों के नए रहनुमा बनते दिखने लगे थे और समय के साथ मुसलमानों का विश्वास मुलायम में बढ़ता ही गया। 2007 के विधानसभा चुनाव जरूर इसका अपवाद थे, जब मुस्लिम वोटरों ने बसपा की तरफ रूख कर लिया था और बीएसपी की पूर्ण बहुमत की सरकार भी बनी थी। यह वह दौर था जब सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने बीजेपी से बाहर कर दिए गए पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को आगरा के सपा सम्मेलन में अपने साथ सपा की टोपी और गमछा पहना कर जोड़ लिया था। इससे नाराज मुस्लिम वोटरों ने खुलकर बसपा के पक्ष में मतदान करके मायावती को मुख्यमंत्री बनवा दिया था। उस समय समाजवादी पार्टी में अमर सिंह की चलती थी, मुलायम अमर सिंह के बिना कोई बड़ा फैसला नहीं लेते थे, इसी वजह से आजम खान तक को पार्टी से बाहर जाना पड़ गया था। यह और बात है कि बाद में अमर सिंह के समाजवादी पार्टी से रिश्ते काफी खराब हो गए थे, खासकर अखिलेश यादव ने अमर सिंह को काफी अनदेखा ही नहीं किया बल्कि अपशब्द भी कहे थे।

     

खैर, बात यूपी में मुस्लिम विधायकों के संख्याबल की कि जाए तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 2012 में सबसे अधिक 68 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। इससे पहले 2002 में 64, 2007 में 54, 1977 में 49, 1996 में 38 और 1957 में 37 मुस्लिम विधायक चुने गए थे। मुस्लिम वोटर किसी की हार जीत का फैसला कर पाएं या नहीं, लेकिन देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में 2017 में मुस्लिम विधायकों का ग्राफ काफी गिर गया और केवल 23 मुस्लिम विधायक चुने गए। इससे पूर्व 1967 के विधानसभा चुनाव में 23 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, वहीं इससे भी बुरा हाल 1991 में मुसलमान प्रतिनिधित्व का हुआ था और मात्र 17 विधायक जीते थे। बात 2017 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम प्रतिनिधितत्व घटने की की जाए तो ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि बीजेपी ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 300 से अधिक सीटें जीती थीं। सपा और बसपा की सबसे शर्मनाक हार हुई थी, इसीलिए यूपी विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व भी कम हो गया था। यूपी में योगी सरकार बनी तो यहां सरकार बनाने वाली भाजपा से एक भी मुस्लिम विधायक नहीं जीता था जबकि इसके पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में 64 मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव में जीत दर्ज करने में सफल रहे थे।

  

राज्य की जनसंख्या में मुस्लिमों की हिस्सेदारी करीब 20 फीसदी है। अब विधानसभा में मुस्लिम प्रतिनिधित्व गिरकर 5.9 प्रतिशत रह गया है। साल 2012 में मुस्लिम प्रतिनिधित्व 17.1 प्रतिशत था। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र विभाग के प्रोफेसर आफ़ताब आलम कहते हैं, ‘पहली बात राष्ट्रीय पार्टी भाजपा ने मुसलमानों को एक भी टिकट नहीं दिया था, जिसके कारण मुसलमानों का यूपी विधानसभा में प्रतिनिधित्व तेजी से गिर गया था।' आफताब सवाल खड़ा करते हैं कि क्या मुसलमान हितों की रक्षा के लिए उनका ही प्रतिनिधि विधायिका में होना जरूरी है? क्या सरकार में शामिल लोग उनके हितों की रक्षा नहीं कर रहे हैं? इस पर तमाम मत हैं। वे आगे कहते हैं, ‘अगर लोकतंत्र में सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं रहेगा तो विशिष्ट वर्ग की सरकार बनेंगी। अगर सभी वर्गों और समुदायों का उचित प्रतिनिधित्व रहेगा तो हम कह सकेंगे कि सर्वांगीण सरकार है। फिलहाल जहां तक विधायिका में मुसलमानों के घटते प्रतिनिधित्व का सवाल है तो इसका परिणाम यह हो रहा है कि सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय होने के बावजूद वह अलग-थलग होते जा रहे हैं। यह हमारे लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है।'

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बहरहाल, 2012 और 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह इस बार के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती और समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने काफी बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं। ओवैसी की पार्टी भी बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशियों को उतार रही है। लेकिन यूपी विधानसभा में मुसलमान विधायकों की संख्या कितनी बढ़ेगी यह नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। फिलहाल सपा हो या बसपा अथवा कांग्रेस और ओवैसी की पार्टी, सभी मुस्लिम वोटरों को लेकर अति आत्मविश्वास में नजर आ रहे हैं। मुस्लिम वोट बैंक की सियासत ने उक्त दलों के नेताओं को ऐसा ‘जकड़’ लिया है कि वह सही-गलत, अच्छे-बुरे, छोटे-बड़े तक का फर्क भूल गए हैं। उनको लगने लगा है कि वह सत्ता हासिल करने के लिए जो भी फैसला लेंगे, वह सर्वमान्य होगा।

    

खासकर समाजवादी पार्टी मुस्लिम वोटरों और प्रत्याशियों को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित है। उसको लगता है कि मुस्लिम प्रत्याशी सपा के लिए तुरूप का इक्का साबित होगा। इसीलिए उसने बड़ी संख्या में दागी-दबंगों और दंगाइयों तक को टिकट बांट दिए हैं। ऐसे लोगों को भी टिकट दे दिया है जिनके ऊपर गैंगस्टर और रासुका लगा है, इसीलिए तो 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों और कैराना से हिन्दुओं के पलायन के आरोपी तक को टिकट थमा दिया है।

    

उम्मीद की जा रही थी कि पिछले पांच वर्षों से बीजेपी जिस तरह से समाजवादी पार्टी पर अपराधियों को संरक्षण देने और अपराध को बढ़ावा देने का आरोप लगा रही थी उसको ध्यान में रखते हुए इस बार शायद अखिलेश द्वारा अपराधियों व दुराचारियों को सत्ता से दूर रखा जाएगा। लेकिन सपा-रालोद गठबंधन की सामने आई सूची में प्रत्याशियों के नाम इन उम्मीदों से मीलों दूर दिखे। बेहतर कानून को स्थापित करने का विश्वास दिलाने वाली समाजवादी पार्टी ने एक बार फिर अपराधियों, दंगाइयों को सत्ता में आने का न्योता देते हुए विधानसभा का टिकट दे दिया। इसमें सबसे बड़ा नाम पश्चिमी यूपी में हिंदुओं के पलायन का मास्टरमाइंड नाहिद हसन था। उत्तर प्रदेश की कैराना सीट से गैंगस्टर नाहिद हसन को प्रत्याशी बनाकर सपा प्रमुख अखिलेश यादव घिर गए हैं। सपा ने कैराना और मुजफ्फरनगर, बुलंदशहर और लोनी में हिन्दुओं के पलायन के आरोपी और माफियाओं को भी टिकट दिया है।

    

सपा-रालोद गठबंधन द्वारा दंगों के आरोपियों को टिकट देने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गया है। भाजपा के एक नेता ने चुनाव आयोग के निर्देशों का उल्लंघन का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है। इसमें मांग की गई है कि सुप्रीम अदालत, चुनाव आयोग को अखिलेश यादव पर मुकदमा चलाने व सपा की मान्यता रद्द करने का निर्देश दे।

 

खैर, 13 जनवरी को ओर से सपा-आरएलडी के गठबंधन वाले प्रत्याशियों की ओर से पहली सूची जारी की गई। इस सूची में समाजवादी पार्टी द्वारा शामली जिले की कैराना सीट के लिए नाहिद हसन के अलावा  सपा गठबंधन ने बुलंदशहर सदर सीट से बसपा के टिकट पर विधायक बनते रहे हाजी अलीम की मृत्यु के बाद उनके छोटे भाई हाजी यूनुस को टिकट दिया है। यूनुस पर बुलंदशहर की कोतवाली नगर में ही 23 मुकदमे दर्ज हैं। प्रभारी निरीक्षक द्वारा एसएसपी को भेजी गई रिपोर्ट में हत्या, हमला, लूट, गुंडा एक्ट, गैंगस्टर एक्ट जैसे 23 मुकदमों का जिक्र किया गया है।

मेरठ से समाजवादी पार्टी के विधायक रफीक अंसारी को दोबारा टिकट दिया गया है। उन पर भी कई आपराधिक केस लंबित हैं। वो अपनी ही पार्टी के एक अन्य नेता को मौत की धमकी देने के बाद चर्चित हुए थे। अक्टूबर 2021 में मेरठ की एक अदालत ने बुंदू खान अंसारी की शिकायत पर रफ़ीक अंसारी को गिरफ्तार करने का आदेश दिया था। शिकायत में कहा गया था कि विधायक रफ़ीक अंसारी ने उन्हें अपनी जमीन फर्जी कागज़ातों के आधार पर बेच कर उनका पैसा हड़प लिया है। इतना ही नहीं, नवम्बर 2017 में रफीक अंसारी का एक ऑडियो वायरल हुआ था। ऑडियो में वो समाजवादी पार्टी के ही एक अन्य नेता को नगर निगम चुनावों के दौरान जान से मारने की धमकी दे रहे थे। विधायक अंसारी मेरठ के नौचंदी थाने में हिस्ट्रीशीटर भी हैं।

 

सपा-आरएलडी के गठबंधन से जुड़ी प्रत्याशियों की इस सूची में एक नाम भाजपा नेता गजेंद्र भाटी की हत्या करने वाले अपराधी अमरपाल शर्मा का है। गाजियाबाद के खोड़ा में भाजपा नेता गजेंद्र भाटी उर्फ गज्जी की दो सितंबर 2017 को हत्या हुई। शूटरों ने खुलासा किया था कि अमरपाल शर्मा ने उन्हें सुपारी दी थी। प्रशासन ने इस मामले में अमरपाल पर रासुका भी लगाई थी। अमरपाल पर साल-2018 में 10 लाख की रंगदारी मांगने का केस दर्ज हुआ। कभी बसपा और कांग्रेस के साथी रहे अमरपाल शर्मा आज सपा-रालोद गठबंधन से साहिबाबाद सीट से प्रत्याशी हैं। इसी प्रकार हापुड़ जिले की धौलाना विधानसभा सीट से सपा विधायक एवं मौजूदा प्रत्याशी असलम चौधरी विवादित बयान के लिए अक्सर चर्चाओं में रहते हैं। इसके चलते पिछले पांच साल में उन पर तकरीबन छह से ज्यादा मुकदमे दर्ज हुए।

 

-अजय कुमार

नेताओं के पाला बदलने के खेल में सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को उठाना पड़ा। कांग्रेस तो करीब-करीब नेताविहीन ही हो गई। कमोवेश बसपा का भी यही हाल है। बसपा के सभी दिग्गज नेता पार्टी से बाहर चले गए हैं।

 

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव से पहले नेताओं के बीच पाला बदलने की जो होड़ चली थी, उसकी रफ्तार अब काफी कम हो गई है। चाहे समाजवादी पार्टी हो या फिर भारतीय जनता पार्टी, दोनों ने भी अब बाहरी नेताओं की एंट्री पर रोक लगा दी है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो घोषणा तक कर दी है कि अब वह किसी बाहरी नेता को पार्टी में एंट्री नहीं देंगे। उधर भाजपा ने खुलकर तो कुछ नहीं कहा है, लेकिन अब उसने भी दलबदलू नेताओं से दूरी बना ली है। बहरहाल, पाला बदलने की दौड़ में कई नेताओं को तो उनकी मंजिल मिल गई, लेकिन इस दौड़ में शामिल सभी नेताओं की किस्मत एक जैसी नहीं रही। कई नेता ऐसे भी रहे जिनकी किस्मत ने उनका पूरी तरह से साथ नहीं दिया। इसमें से कुछ वह नेता भी थे, जिन्होंने पाला बदलने का फैसला काफी देरी से लिया, जिस कारण वह हाशिये पर खड़े रह गए। इसीलिए पश्चिमी यूपी में कांग्रेस का बड़ा मुस्लिम चेहरा समझे जाने वाले इमरान मसूद जो लम्बे समय से समाजवादी चोला ओढ़ने को बेताब लग रहे थे, उनके लिए सपा में दरवाजे नहीं खुल पाए और उन्हें बेमन से बहुजन समाज पार्टी में जाने को मजबूर होना पड़ गया।

इसी प्रकार भीम आर्मी के प्रमुख चन्द्रशेखर आजाद भी समाजवादी पार्टी से समझौता नहीं कर पाए। वहीं भाजपा के भीतर भी बाहरी नेताओं की एंट्री से पार्टी के पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं की नाराजगी को देखते हुए पार्टी ने हाथ खड़ा कर लिया है, लेकिन अभी भी इक्का-दुक्का नेताओं को पार्टी की सदस्यता दिलाई जा रही है। खैर, नेताओं के पाला बदलने के खेल में सबसे अधिक नुकसान कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी को उठाना पड़ा। कांग्रेस तो करीब-करीब नेताविहीन ही हो गई। कमोवेश बसपा का भी यही हाल है। बसपा के सभी दिग्गज नेता पार्टी से बाहर चले गए हैं, बस सतीश मिश्र के रूप में एक पुराना और बड़ा चेहरा पार्टी में बाकी रह गया है। सतीश मिश्रा के सहारे ही बसपा ब्राह्मण कार्ड खेलने की कोशिश कर रही है। बसपा की पहली लिस्ट में 53 उम्मीदवारों में से 17 ब्राह्मण और 14 मुस्लिमों के अलावा 09-09 प्रत्याशी दलित और पिछड़ा समाज के हैं। बसपा ने दो जाट और एक यादव को प्रत्याशी बनाया है।

 

बात समाजवादी पार्टी की कि जाए तो अभी तक सपा ने 36 प्रत्याशियों की ही घोषणा की है। इसमें उसने जाट नेताओं को 06, पिछड़ा वर्ग के नेताओं को 04, दलितों को 05, सबसे अधिक मुस्लिमों को 10 एवं अन्य को 11 टिकट दिए हैं। भारतीय जनता पार्टी जो किसान आंदोलन के चलते काफी मुश्किल में थी उसने जाट नेताओं पर ही सबसे बड़ा दांव लगा दिया है। भाजपा ने 107 प्रत्याशियों की पहली लिस्ट जारी की है। हाल ही में भाजपा के पिछड़ा और दलित समाज के कई नेताओं ने पार्टी से नाता तोड़ा है। इसके अलावा किसान आंदोलन भी उसके लिए बड़ा सिरदर्द था, इसीलिए भाजपा की पहली लिस्ट में जाट उम्मीदवारों की संख्या 17 है और इसके अलावा 02 यादव, पिछड़ा वर्ग के 25, दलित वर्ग के 19 और अगड़ा समाज के 44 नेताओं को टिकट दिया गया है। कांग्रेस ने 125 प्रत्याशियों की घोषणा की है जिसमें 02 जाट, 05 यादव, 28 पिछड़ा, 33 दलित, 20 मुस्लिम व 37 अन्य शामिल हैं।

 

दरअसल, दलबदलुओं ने करीब-करीब सभी सियासी दलों का खेल बिगाड़ दिया है। इसी कारण टिकट बंटवारे में भी अंतिम समय में सभी दलों को काफी उलटफेर करना पड़ा। वैसे दलबदल पहली बार किसी पार्टी की समस्या नहीं बना है। दलबदल के हमाम में सभी राजनैतिक दल ‘नंगे’ नजर आते हैं। इसीलिए तो दलबदल रोकने के लिए बनाए गए तमाम कानूनों में हमारे नेता छेद पर छेद करने से बाज नहीं आते हैं। जिस भी पार्टी को लगता है कि कोई नेता उसके लिए वोट बटोरू साबित हो सकता है तो वह बिना उसकी विश्वसनीयता जांचे और उसके सियासी अतीत को अनदेखा करके अपनी पार्टी में शामिल कर लेता है, ऐसे नेता उस दल का तो नुकसान करते हैं जिसने उस पर विश्वास किया था, लेकिन इनकी मौकापरस्ती, इनको खूब फलने-फूलने का मौका देती है।

आज जो नजारा यूपी में देखने को मिल रहा है, वैसा ही नजारा कुछ समय पूर्व बिहार में भी देखने को मिला था, कुछ नेताओं को जैसे ही लगने लगा कि नीतीश कुमार सरकार की वापसी नहीं होगी और राजद की स्थिति मजबूत है तो सत्ता दल के कई नेता टूट कर राजद में जा मिले थे। ऐसी ही भगदड़ बंगाल विधानसभा चुनाव में भी देखी गई। तब भाजपा की स्थिति मजबूत नजर आ रही थी, इसलिए तृणमूल के कई नेताओं ने पार्टी छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था। जब नतीजे कयासों के विपरीत आए तो यही नेता तमाम बहाने बनाकर तृणमूल कांग्रेस में वापस आने लगे। यही स्थिति अब उत्तर प्रदेश में दिखाई दे रही है। कांग्रेस और भाजपा छोड़ कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले नेता जैसे कतार लगा कर खड़े हो गए हैं।

      

बहरहाल, बात यदि आज भारतीय जनता पार्टी को झटका देने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह सहित अन्य नेताओं और कांग्रेस का दामन छोड़कर सपा की जगह बसपा की सदस्यता ग्रहण करने को मजबूर होने वाले इमरान मसूद की हो, तो बीते कल इस जगह पर कोई और खड़ा था और आने वाले कल में यहां कोई और खड़ा नजर आएगा। यह काफी लम्बा सिलसिला है, जो कभी थमने का नाम नहीं लेगा। कमोवेश ऐसे दलबदलू नेता पूरे देश में मिल जाते हैं। नेता तो नेता कभी-कभी तो पूरी की पूरी पार्टी ही चोला बदल लेती है। महाराष्ट्र में शिवसेना इसका सबसे बड़ा और ताजा उदाहरण है, जो विधानसभा का चुनाव तो भाजपा के साथ गठबंधन करके कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के खिलाफ लड़ी थी, लेकिन जब बीजेपी ने शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने से इंकार कर दिया तो ठाकरे ने सत्ता की खातिर अपने विरोधी दल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर ही सरकार बना ली और वोटर ठगा-सा देखता रह गया। ऐसा ही कारनामा बिहार में नीतिश कुमार भी कर चुके हैं तो एक समय में यूपी में भाजपा-बसपा के गठबंधन वाली सरकार भी इसकी बड़ी मिसाल बन चुकी है। केन्द्र में भी कई बार इसकी बानगी देखने को मिल चुकी है।

 

- अजय कुमार

योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली भी प्रदेश की जनता ने देखी है। दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। कहने का आशय यह है कि प्रदेश की जनता योगी आदित्यनाथ की राजनीति से बहुत प्रसन्न है। अब उत्तर प्रदेश में विद्वेष की राजनीति को तिलांजलि दी जा चुकी है।

 

उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों से पूर्व जिस प्रकार से दलबदल करने के लिए कुछ राजनेता उतावले हो रहे हैं, उसके पीछे एक मात्र कारण यही माना जा रहा है कि ये सभी राजनेता भाजपा की विचारधारा को आत्मसात नहीं कर सके हैं। दूसरा बड़ा कारण यह भी माना जा रहा है कि प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के काम करने का तरीका उत्तर प्रदेश में विगत कई वर्षों से चली आ रही राजनीति के तरीके से भिन्न है। हम भली भांति जानते हैं कि संन्यासी वृति के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निःसंदेह उत्तर प्रदेश में स्वच्छ राजनीति के पक्षधर हैं और भाजपा छोड़ने वाले ज्यादातर विधायकों की राजनीतिक शैली बिलकुल भिन्न तरीके की रही है। कौन नहीं जानता कि देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में राजनीति करने वालों में दबंग किस्म के राजनेता भी मुख्य धारा में शामिल थे। प्रदेश की जनता इस प्रकार की राजनीति से प्रताड़ित भी होती रही है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यकीनन इस दबंग राजनीति पर लगाम लगाने का साहसिक कार्य किया है। वास्तव में लोकतंत्र को बचाने के लिए स्वच्छ छवि वाले राजनेताओं की बहुत आवश्यकता है, लेकिन कांग्रेस, सपा और बसपा की राजनीतिक कार्यशैली एकदम अलग प्रकार की है।

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालातों का अध्ययन किया जाए तो यह सहज ही दिखाई देता है कि पूर्व की सरकारों के समय में अपनाई जाने वाली राजनीतिक शैली में जबरदस्त बदलाव आया है, लेकिन जिस व्यक्ति के स्वभाव को यह बदलाव पसंद नहीं है, वह निश्चित ही भाजपा के साथ राजनीति करने के लिए फिट नहीं बैठता। ऐसे लोग स्वाभाविक रूप से भाजपा का साथ छोड़ने के लिए बाध्य ही होंगे। हालांकि यह प्रामाणिक रूप से कहा जा सकता है कि दल बदल करने वाले राजनेताओं के कोई भी नीति सिद्धांत नहीं होते। वह अवसर देखकर अपने आप में बदलाव करने में सिद्धहस्त होते हैं। जहां तक प्रदेश के कद्दावर नेता स्वामी प्रसाद मौर्य के पार्टी छोड़ने का सवाल है तो यही कहा जाएगा कि प्रदेश में उनके परिवार की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पर्याप्त भरपाई की गई, लेकिन मुख्य सवाल यही है कि भाजपा का जो कार्यकर्ता वर्षों से अहर्निश परिश्रम कर रहा है, उसकी उपेक्षा भी नहीं की जा सकती। और करनी भी नहीं चाहिए। जो लोग अभी हो रहे दलबदल को योगी आदित्यनाथ के लिए खतरे की घंटी निरूपित कर रहे हैं, वे ऐसा लगता है कि बहुत बड़े भ्रम में हैं। क्योंकि कांग्रेस, सपा और बसपा की कार्यशैली से प्रदेश की जनता भलीभांति परिचित है।

 

अब योगी आदित्यनाथ की कार्यशैली भी प्रदेश की जनता ने देखी है। दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। कहने का आशय यह है कि प्रदेश की जनता योगी आदित्यनाथ की राजनीति से बहुत प्रसन्न है। अब उत्तर प्रदेश में विद्वेष की राजनीति को तिलांजलि दी जा चुकी है। पहले प्रताड़ित लोग थाने जाने के लिए भय खाते थे, लेकिन अब वे पुलिस वाले भी जनता की बात को ध्यान से सुनते हैं जो सपा और बसपा के संरक्षण में कार्य करते रहे हैं। योगी आदित्यनाथ का स्पष्ट कहना है कि जिन अधिकारियों को राजनीति करनी है, वह राजनीतिक मैदान में आकर मुकाबला करें, पुलिस कार्यप्रणाली में राजनीति नहीं चलेगी। ऐसा वीडियो वायरल भी हुआ, जिसे प्रदेश सहित देश की जनता ने भी देखा।

उत्तर प्रदेश की राजनीति की सबसे बड़ी विसंगति यही है कि यहां की राजनीतिक धुरी चार प्रमुख दलों के आसपास ही घूमती है। जिसमें भाजपा वर्तमान में शासन में है। कांग्रेस, सपा और बसपा भी सरकार का संचालन कर चुकी हैं। हालांकि प्रदेश में जब से बहुजन समाज पार्टी का उदय हुआ है, तब से कांग्रेस की स्थिति रसातल को प्राप्त कर चुकी है। आज कांग्रेस की हालत ऐसी है कि उसके साथ कोई भी आने के लिए तैयार नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने बहुत बड़ी अपेक्षा के साथ कांग्रेस का हाथ पकड़ा था, लेकिन कांग्रेस ने सपा को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। इसी प्रकार बसपा की भी कहानी इसी प्रकार की है। उसे अपनी सरकार बनने के पूरे आसार दिखाई दे रहे थे, लेकिन पूरे नहीं हो सके। इस बार बसपा प्रमुख मायावती ने अपने पत्ते नहीं खोले हैं। चुनाव से पूर्व मायावती की यह चुप्पी किसी बहुत बड़े कदम की आहट है। राजनीतिक रूप से यही कहा जाएगा कि मायावती अगर इसी प्रकार चुप रहकर तमाशा देखेंगी तो इसका लाभ सपा और कांग्रेस को मिल सकता है और भाजपा के लिए बहुत बड़ा संकट पैदा हो सकता है। हालांकि इस बार सपा और कांग्रेस के लिए करो या मरो वाली स्थिति है। यह भी सही है कि दोनों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए पूरा जोर लगाना होगा, जिसे दोनों दल कर भी रहे हैं। दूसरा यह भी एक कारण है कि कांग्रेस की ओर से प्रियंका वाड्रा को चमत्कारिक नेता के रूप में स्थापित करने के लिए ऐसा करना जरूरी भी है।

 

उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात क्या होंगे, यह अभी से केवल अनुमान लगाया जा सकता है और अनुमान सत्य ही होंगे, ऐसा प्रामाणिक रूप से नहीं कहा जा सकता। लेकिन प्रदेश के विभिन्न कोनों से यह आवाज अवश्य ही मुखरित हो रही है कि विधायक बदल दीजिए, लेकिन मुख्यमंत्री योगी जी ही चाहिए। इसके निहितार्थ पूरी तरह से स्पष्ट हैं कि प्रदेश की जनता योगी को मुख्यमंत्री के रूप में पहली पसंद मानती है। उनके कार्य करने की शैली भ्रष्ट राजनेताओं के लिए चेतावनी का कार्य कर रही है। उनकी यही शैली आयातित नेताओं को भाजपा से दूर कर रही है। हालांकि इसे भाजपा के लिए शुभ संकेत भी माना जा रहा है। अब देखना यही है कि भाजपा अपने बिछड़ने वाले साथियों की भरपाई के लिए क्या तैयारी करती है।

 

-सुरेश हिंदुस्थानी

यदि सुभाष बाबू 1945 की हवाई दुर्घटना में बच जाते और आजादी के बाद भारत आ जाते तो नेहरु का प्रधानमंत्री बने रहना काफी मुश्किल में पड़ जाता। लेकिन नेहरु का बड़प्पन देखिए कि अब से 65 साल पहले वे सुभाष बाबू की बेटी अनिता शेंकल को लगातार 6000 रु. प्रतिवर्ष भिजवाते रहे।

 

हमारे गणतंत्र दिवस पर यों तो सरकारें तीन दिन का उत्सव मनाती रही हैं लेकिन इस बार 23 जनवरी को भी जोड़कर इस उत्सव को चार-दिवसीय बना दिया गया है। 23 जनवरी इसलिए कि यह सुभाषचंद्र बोस का जन्म दिवस होता है। सुभाष-जयंति पर इससे बढ़िया श्रद्धांजलि उनको क्या हो सकती है? भारत के स्वातंत्र्य-संग्राम में जिन दो महापुरुषों के नाम सबसे अग्रणी हैं, वे हैं— महात्मा गांधी और सुभाषचंद्र बोस। 1938 में कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में गांधी और नेहरु के उम्मीदवार पट्टाभि सीतारम्मय्या को सुभाष बाबू ने हराकर इतिहास कायम किया था। वे मानते थे कि भारत से अंग्रेजों को बेदखल करने के लिए फौजी कार्रवाई भी जरूरी है।

उन्होंने जापान जाकर आजाद हिंद फौज का निर्माण किया, जिसमें भारत के हिंदू, मुसलमान, ईसाई, सिख और सभी जातियों के लोग शामिल थे। उस फौज के कई अफसरों और सिपाहियों से पिछले 65-70 साल में मेरा कई बार संपर्क हुआ है। उनका राष्ट्रप्रेम और त्याग अद्भुत रहा है। कई मामलों में गांधीजी के अहिंसक सत्याग्रहियों से भी ज्यादा! मैं सोचता हूं कि यदि सुभाष बाबू 1945 की हवाई दुर्घटना में बच जाते और आजादी के बाद भारत आ जाते तो जवाहरलाल नेहरु का प्रधानमंत्री बने रहना काफी मुश्किल में पड़ जाता। लेकिन नेहरु का बड़प्पन देखिए कि अब से 65 साल पहले वे सुभाष बाबू की बेटी अनिता शेंकल को लगातार 6000 रु. प्रतिवर्ष भिजवाते रहे, जो कि आज के हिसाब से लाखों रु. होता है।

इंदिरा गांधी ने सुभाष बाबू के सम्मान में डाक-टिकिट जारी किया, फिल्म बनवाई, राष्ट्रीय छुट्टी रखी, कई सड़कों और भवनों के नाम उन पर रखे। 1969 में जब इंदिराजी काबुल गईं तो मेरे अनुरोध पर उन्होंने ‘हिंदू गूजर’ नामक मोहल्ले के उस कमरे में जाना स्वीकार किया, जिसमें सुभाष बाबू छद्म वेष में रहा करते थे लेकिन अफगान विदेश मंत्री डॉ. खान फरहादी ने मुझसे कहा कि इंदिराजी को वहां नहीं जाने की सलाह हमने भेजी है, क्योंकि वह जगह सुरक्षित और स्वच्छ नहीं है। जो भी हो, मैंने काबुल के उस कमरे में एक छोटा-सा उत्सव-जैसा करके सुभाष बाबू का चित्र प्रतिष्ठित कर दिया था। मैं अब भाई नरेंद्र मोदी को बधाई देता हूं कि उन्होंने सुभाष बाबू के जन्म-दिवस को मनाने का इतना सुंदर प्रबंध कर दिया है। मैं तो उनसे अनुरोध करता हूं कि सुभाष बाबू वियना (आस्ट्रिया) और जापान में जहां भी रहते थे, उन स्थानों को वे स्मारक का रूप देने का कष्ट करें और वह पत्र भी पढ़ें, जो 24 जनवरी 1938 को महान स्वातंत्र्य-सेनानी रासबिहारी बोस ने सुभाष बाबू को लिखा था, ‘‘अगली महत्वपूर्ण बात है, हिंदुओं को संगठित करना! भारत के मुसलमान वास्तव में हिंदू ही हैं।... उनकी धार्मिक प्रवृत्तियां और रीति-रिवाज तुर्की, ईरान और अफगानिस्तान के मुसलमानों से अलग हैं। हिंदुत्व में बड़ा लचीलापन है।’’

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

मणिपुर में हाल में उग्रवादी हमलों के बाद सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया है। वैसे राज्य विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी और विकास मुख्य मुद्दे हैं लेकिन कानून व्यवस्था के अलावा, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को रद्द करने की लंबे समय से जारी मांग भी प्रमुख मुद्दा है।

 

मणिपुर विधानसभा चुनावों में इस बार भाजपा और कांग्रेस के बीच काँटे का मुकाबला माना जा रहा है। देखना होगा कि क्या यहां भाजपा की पहली सरकार को एक और बार जनसेवा का मौका मिलता है या सत्ता में कांग्रेस वापसी करती है। मणिपुर के राजनीतिक परिदृश्य की बात करें उससे पहले आपको बता दें कि पिछली जनगणना के अनुसार मणिपुर की साक्षरता दर लगभग 80 प्रतिशत थी, जो राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है और पुरुष साक्षरता 86.49 प्रतिशत है। मणिपुर के आर्थिक सर्वेक्षण 2020-21 के अनुसार 15-24 आयु वर्ग में युवा बेरोजगारी 44.4 प्रतिशत है।

मणिपुर में हाल में उग्रवादी हमलों के बाद यहां सुरक्षा एक बड़ा मुद्दा बन गया है। वैसे राज्य विधानसभा चुनाव में बेरोजगारी और विकास मुख्य मुद्दे हैं लेकिन कानून व्यवस्था के अलावा, सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम को रद्द करने की लंबे समय से जारी मांग भी प्रमुख मुद्दा है। इसके अलावा राज्य में आर्थिक संकट को लेकर भी कांग्रेस भाजपा पर काफी आक्रामक है। मणिपुर में शायद ही कोई उद्योग है, इसलिए कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा शासन में रोजगार के मोर्चे पर कोई काम नहीं हुआ। भाजपा और कांग्रेस के अलावा नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी) और नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) जैसे छोटे स्थानीय दल अपनी-अपनी मांगों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं।

 

हम आपको याद दिला दें कि भाजपा दो स्थानीय दलों- एनपीपी और एनपीएफ के साथ हाथ मिलाकर सिर्फ 21 सीटों के बावजूद 2017 में सरकार बनाने में कामयाब रही थी। पिछले चुनावों में कांग्रेस को 28 सीटें मिली थीं। भाजपा का कहना है कि वह इस बार के चुनावों में दो-तिहाई सीटें जीतना चाहती है जबकि कांग्रेस भी ऐसी ही चाहत जता रही है। हम आपको बता दें कि राज्य की 60 सदस्यीय विधानसभा के लिए दो चरणों में 27 फरवरी और तीन मार्च को चुनाव होगा।

 

भाजपा की मणिपुर इकाई के उपाध्यक्ष सी. चिदानंद का कहना है कि उनकी पार्टी का उद्देश्य ‘‘60 सदस्यीय सदन में 40 से अधिक सीटें प्राप्त करना है।’’ हालांकि भाजपा गठबंधन में दरारें भी नजर आ रही हैं जिसे स्वीकार करते हुए चिदानंद ने कहा कि ‘‘राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में, मुख्य मुकाबला भाजपा और नगा पीपुल्स फ्रंट के बीच होगा। हम आपको बता दें कि पर्वतीय क्षेत्र में नगा जनजातियों का प्रभुत्व है और नगा पीपुल्स फ्रंट भाजपा की वर्तमान गठबंधन सहयोगी है उसके बावजूद यह दोनों दल आमने-सामने नजर आ रहे हैं।

 

इस बारे में विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा के भीतर मतभेद और एनपीपी और एनपीएफ सहयोगियों के बीच हिंदुत्व कार्ड को लेकर नाखुशी ने गठबंधन सहयोगियों के बीच दूरियां पैदा कर दी हैं और इससे भाजपा के चुनाव की संभावना प्रभावित हो सकती है। हालांकि, मणिपुर के लेखक एवं संपादक और पूर्वोत्तर के विशेषज्ञ प्रदीप फांजौबम ने कहा, ‘‘हालांकि चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं हैं लेकिन सरकार बनाने के लिए आवश्यक होने पर चुनाव के बाद गठबंधन हो सकते हैं।’’ 

दूसरी ओर, कांग्रेस भी हाल के महीनों में अपने कई विधायकों के सत्तारुढ़ भाजपा में शामिल होने के लिए पार्टी छोड़ने जैसी समस्याओं से घिरी हुई है। कांग्रेस की राज्य इकाई के पूर्व अध्यक्ष गोविंददास कोंथौजम सहित कांग्रेस के पांच विधायक पिछले साल अगस्त में भाजपा में शामिल हुए थे। हालांकि, मणिपुर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष एन. लोकेन सिंह को भरोसा है कि कांग्रेस वापसी करेगी। उन्होंने ‘‘भ्रष्टाचार और वित्तीय घोटाले’’ के लिए मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार की आलोचना करते हुए कहा, ‘‘आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छू रही हैं, इसलिए राज्य के लोग केंद्र में और साथ ही साथ मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाली सरकारों से तंग आ चुके हैं।’’ उन्होंने दावा किया कि लोगों का मूड बदल रहा है क्योंकि ‘‘बेरोजगार युवाओं की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है... गरीब लोगों के रहने की स्थिति खराब हो रही है।'' उन्होंने आरोप लगाया कि भाजपा के नेता अमीरों को बैंक, हवाई अड्डे, रेलवे स्टेशन आदि बेच रहे हैं।’’ मणिपुर कांग्रेस का यह भी आरोप है कि राज्य सरकार ने आचार संहिता का ऐलान हो जाने के बाद भी कई नीतिगत आदेश जारी किए, जो आचार संहिता का उल्लंघन है।

 

बहरहाल, आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से इतर यदि जनता की बात करें तो वह यही चाहती है कि मणिपुर में शांति बनी रहे, महंगाई कम हो और रोजगार के अवसर बढ़ें। उग्रवाद की हालिया घटनाओं को देखते हुए जनता के मन में कई सवाल हैं जिनका जवाब वह अपने नेताओं से तब जरूर मांगेगी जब वह उनसे वोट मांगने आएंगे।

 

-नीरज कुमार दुबे

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी ने 107 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर शहर से चुनाव लड़ेंगे जबकि उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य कौशाम्बी जिले की सिराथू सीट से चुनाव मैदान में उतरेंगे।

 

उत्तर प्रदेश चुनाव में चुनावी बिगुल बजने के साथ ही राजनीतिक पलायन भी शुरू हो गया है। स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धर्म सिंह सैनी जैसे बड़े मंत्री भाजपा का दामन छोड़ समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को कितना नुकसान होगा? साथ ही साथ जिस तरीके से स्वामी प्रसाद मौर्य भाजपा पर आरोप लगा रहे हैं उससे भगवा पार्टी कैसे निकल पाएगी, इसी को लेकर हमने चाय पर समीक्षा में चर्चा की। हमेशा की तरह प्रभासाक्षी के इस खास कार्यक्रम में संपादक नीरज कुमार दुबे मौजूद रहे। नीरज कुमार दुबे ने बताया कि नेताओं के जाने से जनता भी दूसरी तरफ चली जाती है, यह कोई जरूरी नहीं है। स्वामी प्रसाद मौर्य भले ही यह दावा कर रहे हो कि वह जिस पार्टी से गए उस पार्टी को काफी नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन यह बात भी सच है कि भाजपा फिलहाल नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के रथ पर सवार है और उसे बहुत ज्यादा नुकसान नहीं होगा।

योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर से चुनाव लड़ने को लेकर नीरज दुबे ने साफ तौर पर कहा कि भाजपा योगी आदित्यनाथ के जरिए पूर्वांचल के सभी सीटों को साधने की कोशिश कर रही है। साथ ही साथ स्वामी प्रसाद मौर्य गोरखपुर से लगे सीट से ही आते हैं। ऐसे में पार्टी को होने वाले नुकसान को कम करने में योगी आदित्यनाथ अहम साबित हो सकते हैं। आपको बता दें कि योगी आदित्यनाथ को भाजपा ने गोरखपुर शहर से चुनावी मैदान में उतारा है। अब तक मायावती चुनावी मैदान में उतरने से मना कर चुकी हैं जबकि अखिलेश यादव भी सीधे-सीधे चुनावी मैदान में उतरने के सवाल पर जवाब नहीं दे रहे हैं। नीरज दुबे ने साफ तौर पर कहा कि 5 साल तक सत्ता का मलाई खाने के बाद आप अगर किसी दूसरे दल में जाते हो तो इससे आपका स्वार्थ झलकता है। उन्होंने कहा कि स्वामी प्रसाद मौर्य के बातों पर विश्वास करना इसलिए भी जायज नहीं है क्योंकि आज से 5 दिन 7 दिन पहले ही वह भाजपा के दलित और पिछड़ों के लिए किए गए कार्यों को गिना रहे थे।

 

भाजपा के बागी नेताओं का समाजवादी पार्टी में शामिल होने को लेकर नीरज दुबे ने माना कि अखिलेश यादव के लिए यह परिस्थितियां बेहद ही मुश्किल है। अखिलेश यादव को अपने ऐसे कई नेताओं को दरकिनार करना पड़ा होगा। यही कारण है कि अखिलेश यादव ने साफ तौर पर कह दिया है कि अब वह अन्य दलों से आने वाले लोगों को समाजवादी पार्टी में शामिल नहीं करेंगे। नीरज दुबे ने यह भी कहा कि इतनी भारी संख्या में दूसरे दलों से आए लोगों को अगर अखिलेश यादव टिकट देंगे तो समाजवादी पार्टी में भी बगावत के स्वर उठने लगेंगे। देखना दिलचस्प होगा कि आगामी चुनाव की रणनीति में अखिलेश यादव किस तरह से आगे बढ़ते हैं। लेकिन यह तो तय है कि मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच दिलचस्प होता जा रहा है। नीरज दुबे ने दावा किया कि अखिलेश यादव जोश में होश होते दिखाई दे रहे हैं। चुनाव से पहले वह अति उत्साही नजर आ रहे हैं। ऐसा ही कुछ 2017 में दिखाई दिया था तब उन्हें बेहद ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा था।

भाजपा की सूची जारी

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने शनिवार को 107 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर शहर से चुनाव लड़ेंगे जबकि उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य कौशाम्बी जिले की सिराथू सीट से चुनाव मैदान में उतरेंगे। पार्टी ने जिन 107 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा की है, उनमें से 105 सीटों पर पहले और दूसरे चरण में मतदान होना है। गोरखपुर में छठवें चरण के तहत तीन मार्च को जबकि सिराथू में पांचवें चरण के तहत 27 फरवरी को मतदान होना है। पार्टी ने 20 वर्तमान विधायकों के टिकट भी काटे हैं। पहले और दूसरे चरण के लिए घोषित उम्मीदवारों में मथुरा से ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा, शाहजहांपुर से राज्य के वित्त व संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना, थानाभवन से गन्ना विकास एवं चीनी उद्योग मंत्री सुरेश राणा, आगरा ग्रामीण से उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल बेबी रानी मौर्य, नोएडा से पंकज सिंह, सरधना से संगीत सोम प्रमुख नाम हैं। प्रधान ने कहा कि पार्टी ने 21 नए चेहरों को टिकट दिया है, जिनमें युवा, महिला और समाज के विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाले प्रबुद्ध लोग शामिल हैं।

 

भाजपा को बीस फीसदी लोगों के भी वोट नहीं मिलेंगे: अखिलेश यादव

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक बार फिर चार सौ सीटें जीतने का दावा करते हुए समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर कटाक्ष करते हुए कहा कि 80 बनाम 20 से उनका मतलब है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश चुनाव में 20 फीसदी लोगों का समर्थन मिलेगा जबकि बाकी 80 प्रतिशत का समर्थन सपा को मिलेगा। उन्होंने कहा कि हालांकि अब स्वामी प्रसाद मौर्य व अन्य के सपा में शामिल होने के बाद भाजपा को वह भी (20 फीसदी समर्थन) मिलना मुश्किल है। अखिलेश यादव ने यहां मौर्य व अन्य विधायकों के सपा की सदस्यता ग्रहण करने के दौरान कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए यह बात कही। सपा अध्यक्ष ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी दावा कर रही है कि उसे उत्तर प्रदेश चुनाव में तीन चौथाई सीटों पर जीत मिलेगी, जिसका अर्थ है कि उन्हें केवल तीन या चार सीटें मिलेंगी। उन्होंने कहा कि समाजवादी और अंबेडकरवादी लोग मिलकर काम करेंगे तो 400 सीटें भी जीत जाएंगे, क्योंकि जनतापरिवर्तन चाहती है। उन्होंने कहा कि कुछ दिनों पहले हमने कहा था कि मुख्यमंत्री जी को गणित का अध्यापक रखना होगा, जो वह अस्सी और बीस की बात कर रहे हैं।... समाजवादी पार्टी के साथ अस्सी फीसदी लोग खड़े हो ही गये। हालांकि जिन-जिन लोगों ने आज स्वामी प्रसाद मौर्य की बात सुनी होगी, उससे लगता है कि वह 20 फीसदी (लोग) भी उनके खिलाफ हो गये होंगे। 

 

इससे पहले स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा कि आगामी चुनाव में वह उप्र से भाजपा का सूपड़ा साफ कर देंगे। उन्होंने कहा कि आज भाजपा के खात्मे का शंखनाद हो गया है। भाजपा ने देश और प्रदेश की जनता को गुमराह कर उसकी आंखों में धूल झोंकी है और जनता का शोषण किया है। अब भाजपा का खात्मा करके उत्तर प्रदेश को भाजपा के शोषण से मुक्त कराना है। मौर्य ने कहा, यह मकर संक्रांति भाजपा के अंत का प्रतीक होगी। भाजपा के वरिष्ठ नेता गहरी नींद में थे और हमारे इस्तीफे के बाद उनकी नींद उड़ गई।

 

- अंकित सिंह

पौराणिक कथाओं के लिहाज से देखें तो आपने कई बार पढ़ा होगा कि कोई राक्षस या दैत्य किसी को अपना आहार बनाने के लिए अपना वेष बदल कर सामाजिक दिखने का प्रयास करता है लेकिन जैसे ही उसे मौका मिलता है वह अपना असली रूप दिखा देता है।

 

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा यह न्यू इंडिया है तो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने कहा कि यह न्यू पाकिस्तान है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का अभियान छेड़ा तो इमरान खान भी अब पाकिस्तान को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। दरअसल, पाकिस्तान अपनी पहली राष्ट्रीय सुरक्षा नीति लेकर सामने आया है जिसमें भारत सहित अन्य निकटतम पड़ोसियों के साथ शांति स्थापित करने और पाकिस्तान को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया गया है। वैसे बम धमाकों और गोलीबारी के लिए आतंकवादियों को प्रशिक्षित करते रहने वाले पाकिस्तान के मुँह से शांति की बात अजीब लगती है लेकिन यह वास्तविकता है कि पाकिस्तान ने राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में लिखित रूप में शांति पर बल दिया है। वैसे पाकिस्तान की किसी बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि पूरी दुनिया गवाह है कि संयुक्त राष्ट्र तक को आतंकवाद के विरुद्ध कार्रवाई का आश्वासन देने के बावजूद कैसे पाकिस्तान आतंकवादियों का महिमामंडन करता है और उनको हर तरह की सुविधा प्रदान करता है।

पाकिस्तान के मन में क्या है?

 

अब पाकिस्तान का मन शांति ढूँढ़ रहा है तो इसका कारण उसकी खराब आर्थिक हालत है। पौराणिक कथाओं के लिहाज से देखें तो आपने कई बार पढ़ा होगा कि कोई राक्षस या दैत्य किसी को अपना आहार बनाने के लिए अपना वेष बदल कर सामाजिक दिखने का प्रयास करता है लेकिन जैसे ही उसे मौका मिलता है वह अपना असली रूप दिखा देता है। यही बात पाकिस्तान के साथ भी लागू होती है। आज पाई-पाई को तरस रहा पाकिस्तान शांति की बात तो कर रहा है लेकिन जैसे ही उसका पेट भरेगा, वह अशांति मचाने पर उतारू हो जायेगा। अपनी करतूतों की सजा भुगत रहे पाकिस्तान को दुनिया के बड़े देशों ने आर्थिक मदद देना बंद कर दिया है और चीन तथा खाड़ी देशों से उसने इतना उधार ले रखा है कि वह चुकाये नहीं चुक रहा। एफएटीएफ की ग्रे लिस्ट में शामिल पाकिस्तान चाहता है कि किसी तरह प्रतिबंध हट जायें और फिर से उस पर डॉलर बरसने लगें। इसलिए पाकिस्तान के नये पैंतरे से दुनिया को सावधान रहने की जरूरत है।

 

पाकिस्तान का दोहरा रवैया

 

जहाँ तक पाकिस्तान की ओर से की जा रही शांति की बात है तो आपको बता दें कि इससे पहले नवाज शरीफ ने भी प्रधानमंत्री रहते हुए भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की ओर से बढ़ाये गये दोस्ती के हाथ को थामा था। अटलजी की लाहौर यात्रा के बाद उम्मीद जगी थी कि क्षेत्र में शांति आयेगी लेकिन पाकिस्तान का असल सच यह है कि भले वहां की सरकार भारत से दोस्ती की बात सोच भी ले लेकिन पाकिस्तान के असली हुक्मरान यानि वहां की सेना भारत विरोधी रवैया कभी त्याग नहीं सकती। इसीलिए यदि पाकिस्तान सरकार भारत के साथ अच्छे रिश्तों की बात कर रही है तो समझ जाइये कि दाल में जरूर कुछ काला है। पाकिस्तान एक ओर तो कह रहा है कि वह अगले सौ साल तक भारत के साथ कोई उठापटक नहीं चाहता लेकिन सीमा पार उसने 400 आतंकवादियों को भारत में घुसपैठ के लिए तैयार रखा है। पाकिस्तान एक ओर भारत के साथ शांति चाहने की बात कह रहा है वहीं भारत के आंतरिक मुद्दों पर अनावश्यक हस्तक्षेप करने से बाज नहीं आ रहा। पाकिस्तान एक ओर भारत से अच्छे रिश्ते चाहने की बात कह रहा है तो वहीं दूसरी ओर चीन के साथ मिलकर भारत विरोधी साजिशें रचने में लगा है। पाकिस्तान अगर सौ साल तक भारत से अच्छे रिश्ते की सोच भी रहा है तो उसका एक बड़ा कारण यह भी है कि पिछले 75 सालों के दौरान वह अपनी हर बुरी हरकत के लिए हिन्दुस्तान से बुरी तरह पिटता रहा है।

पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में क्या है?

 

जहाँ तक पाकस्तान की पहली राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की बात है तो आपको बता दें कि 100 पन्नों की इस रिपोर्ट में पाकिस्तान को आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दिया गया है यानि आर्थिक सुरक्षा को मजबूत बनाने पर सबसे ज्यादा जोर है। आश्चर्यजनक रूप से इसमें सैन्य ताकत पर केंद्रित एक आयामी सुरक्षा नीति की बजाय आर्थिक सुरक्षा को केंद्र में रखा गया है। देखना होगा कि इस नीति पर पाकिस्तानी सेना की क्या प्रतिक्रिया रहती है। इमरान खान पाकिस्तान की सेना की मदद से ही प्रधानमंत्री पद तक पहुँचे हैं इसलिए अगर वह सेना के पर कतरेंगे तो उनके खिलाफ बगावत भी हो सकती है। इस रिपोर्ट को जारी करते हुए इमरान खान ने कहा भी है कि पाकिस्तान के जन्म से ही एक आयामी सुरक्षा नीति रही जिसमें सैन्य ताकत पर फोकस था, लेकिन अब इसमें बदलाव कर पहली बार राष्ट्रीय सुरक्षा को परिभाषित किया गया है।

 

वैसे आपको बता दें कि पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का वास्तविक मसौदा गोपनीय श्रेणी में बना रहेगा। इस नीति के मुख्य बिंदुओं में राष्ट्रीय सामंजस्य, आर्थिक भविष्य को सुरक्षित करना, रक्षा एवं क्षेत्रीय अखंडता, आंतरिक सुरक्षा, बदलती दुनिया में विदेश नीति और मानव सुरक्षा शामिल हैं। इसके अलावा पाकिस्तान ने देखा कि जब उसके बुरे समय में किसी ने उसकी आर्थिक मदद नहीं की तो उसने अब आर्थिक रूप से मजबूत बनने का संकल्प लिया है और इसलिए उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में कहा गया है कि अर्थव्यवस्था मजबूत होगी तो अतिरिक्त संसाधन उत्पन्न होगे जिन्हें बाद में और सैन्य ताकत बढ़ाने और मानव सुरक्षा के लिए उपयोग में लाया जायेगा।

 

भारत के लिए क्या कहती है पाक राष्ट्रीय सुरक्षा नीति?

 

जहाँ तक इस नीति में भारत से संबंधों की बात है तो मीडिया रिपोर्टों के हवाले से मिली जानकारी के मुताबिक, इसमें जम्मू-कश्मीर को द्विपक्षीय संबंध के केंद्र में रखा गया है और भारत के लिए कहा गया है कि वह सही से कार्य करे और लोगों की बेहतरी के लिए क्षेत्रीय संपर्क से जुड़े। इस नीति में कहा गया है कि पाकिस्तान भारत सहित अपने सभी पड़ोसियों के साथ शांति चाहता है और कश्मीर मुद्दे के समाधान के बिना भी नयी दिल्ली से कारोबार के रास्ते को खुला रखना चाहता है। देखना होगा कि भारत की इस पर क्या प्रतिक्रिया रहती है। इसके अलावा भारत के संबंध में इस नीति में भ्रामक सूचना, हिंदुत्व और घरेलू राजनीतिक फायदे के लिए आक्रामकता के इस्तेमाल को हिन्दुस्तान से अहम खतरा बताया गया है। जहां तक पाकिस्तान को हिंदुत्व से डर लगने की बात है तो कमाल की बात यह है कि हिंदुओं पर अपने देश में जुल्म ढाने वाले, उनके मंदिरों को तोड़ने वाले, उनके अधिकारों को छीनने वाले और हिंदुत्व का मजाक बनाने वाले पाकिस्तान को असल में हिंदुत्व से डर लगता है।

 

बहरहाल, जहाँ तक भारत और पाकिस्तान के वर्तमान संबंधों की स्थिति की बात है तो आपको याद दिला दें कि पठानकोट वायुसेना बेस पर पड़ोसी देश के आतंकवादियों द्वारा 2016 में किए गए हमले के बाद से भारत-पाकिस्तान के बीच संबंध बिगड़े थे। उसके बाद उरी में भारतीय सेना के शिविर सहित अन्य प्रतिष्ठानों पर हुए हमलों और भारत की ओर से दिये गये करारे जवाबों ने दोनों पड़ोसी देशों के बीच संबंधों को और बिगाड़ दिया।

 

-नीरज कुमार दुबे

 

केएम करियप्पा दूसरे ऐसे सेना अधिकारी थे, जिन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी। उन्हें 28 अप्रैल 1986 को फील्ड मार्शल का रैंक प्रदान किया गया था। फील्ड मार्शल एक पांच सितारा अधिकारी रैंक और भारतीय सेना में सर्वोच्च प्राप्य रैंक है।

 

प्रतिवर्ष 15 जनवरी को भारतीय सेना दिवस मनाया जाता है और हम इस वर्ष 15 जनवरी को 74वां सेना दिवस मना रहे हैं। सेना दिवस के अवसर पर पूरा देश थलसेना के अदम्य साहस, जांबाज सैनिकों की वीरता, शौर्य और उसकी शहादत को याद करता है। इस विशेष अवसर पर जवानों के दस्ते और अलग-अलग रेजीमेंट की परेड के अलावा झांकियां भी निकाली जाती हैं और उन सभी बहादुर सेनानियों को सलामी दी जाती है, जिन्होंने देश और लोगों की सलामती के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर दिया। 15 जनवरी को ही यह दिवस मनाए जाने का विशेष कारण यही है कि आज ही के दिन वर्ष 1949 में लेफ्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा भारतीय सेना के पहले कमांडर-इन-चीफ बने थे। उन्होंने 15 जनवरी 1949 को ब्रिटिश जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी। जनरल फ्रांसिस बुचर भारत के आखिरी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ थे। 

1899 में कर्नाटक के कुर्ग में जन्मे करियप्पा ने 20 वर्ष की आयु में ब्रिटिश इंडियन आर्मी में नौकरी शुरू की थी और भारत-पाक आजादी के समय उन्हें दोनों देशों की सेनाओं के बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। 1947 में उन्होंने भारत-पाक युद्ध में पश्चिमी सीमा पर भारतीय सेना का नेतृत्व किया था। दूसरे विश्व युद्ध में बर्मा में जापानियों को शिकस्त देने के लिए उन्हें प्रतिष्ठित सम्मान ‘ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश अम्पायर’ दिया गया था। 1953 में वे भारतीय सेना से सेवानिवृत्त हुए और 94 वर्ष की आयु में 1993 में उनका निधन हुआ।

 

केएम करियप्पा दूसरे ऐसे सेना अधिकारी थे, जिन्हें फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी। उन्हें 28 अप्रैल 1986 को फील्ड मार्शल का रैंक प्रदान किया गया था। फील्ड मार्शल एक पांच सितारा अधिकारी रैंक और भारतीय सेना में सर्वोच्च प्राप्य रैंक है। भारतीय सेना में यह पद सर्वोच्च होता है, जो किसी सैन्य अधिकारी को सम्मान स्वरूप दिया जाता है। देश के इतिहास में अब तक केवल दो अधिकारियों को ही यह रैंक दिया गया है। सबसे पहले जनवरी 1973 में राष्ट्रपति द्वारा सैम मानेकशां को फील्ड मार्शल पद से सम्मानित किया था। उसके बाद 1986 में केएम करियप्पा को फील्ड मार्शल बनाया गया।

 

भारतीय थल सेना का गठन ईस्ट इंडिया कम्पनी की सैन्य टुकड़ी के रूप में कोलकाता में 1776 में हुआ था, जो बाद में ब्रिटिश भारतीय सेना बनी और देश की आजादी के बाद इसे ‘भारतीय थल सेना’ नाम दिया गया। भारतीय सेना की 53 छावनियां और 9 आर्मी बेस हैं और चीन तथा अमेरिका के साथ भारतीय सेना दुनिया की तीन सबसे बड़ी सेनाओं में शामिल है। हमारी सेना संयुक्त राष्ट्र के शांति अभियानों में सबसे बड़ी योगदानकर्ताओं में से एक है। यह दुनिया की कुछेक ऐसी सेनाओं में से एक है, जिसने कभी भी अपनी ओर से युद्ध की शुरूआत नहीं की। भारतीय सेना के ध्वज का बैकग्राउंड लाल रंग का है, ऊपर बायीं ओर तिरंगा झंडा, दायीं ओर भारत का राष्ट्रीय चिह्न और तलवार हैं। सेना दिवस के अवसर पर सेना प्रमुख को सलामी दी जाती रही है लेकिन 2020 में पहली बार सेना प्रमुख के स्थान पर सीडीएस जनरल बिपिन रावत को सलामी दी गई थी।

 

देश की आजादी के बाद भारतीय सेना पांच बड़े युद्ध लड़ चुकी है, जिनमें चार पाकिस्तान के खिलाफ और एक चीन के साथ लड़ा था। देश की आजादी के बाद 1947-48 में हुए भारत-पाक युद्ध को ‘कश्मीर युद्ध’ नाम से भी जाना जाता है, जिसके बाद कश्मीर का भारत में विलय हुआ था। 1962 में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी द्वारा धोखे से थाग-ला-रिज पर भारतीय सेना पर हमला बोल दिया गया था। उस जमाने में भातीय सेना के पास स्वचालित और आधुनिक हथियार नहीं होते थे, इसलिए चीन को रणनीतिक बढ़त मिली थी। 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद 1971 में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी। 13 दिनों तक चले उस युद्ध के बाद ही पाकिस्तान के टुकड़े कर बांग्लादेश का जन्म हुआ और पाकिस्तानी जनरल नियाजी के साथ 90 हजार पाक सैनिकों ने जांबाज भारतीय सेना के समक्ष हथियार डाल दिए थे। मई से जुलाई 1999 तक चले कारगिल युद्ध में तो भारतीय सेना ने पाकिस्तान को छठी का दूध याद दिला दिया था।

सेना दिवस के महत्वपूर्ण अवसर पर चीन द्वारा वर्तमान में लगातार पेश की जा रही चुनौतियों के दौर में भारतीय सेना की निरन्तर बढ़ती ताकत का उल्लेख करना बेहद जरूरी है। भारतीय सैन्यबल में करीब 13.25 लाख सक्रिय सैनिक, 11.55 लाख आरक्षित बल तथा 20 लाख अर्धसैनिक बल हैं। भारतीय थलसेना में 4426 टैंक (2410 टी-72, 1650 टी-90, 248 अर्जुन एमके-1, 118 अर्जुन एमके-2), 5067 तोपें, 290 स्वचालित तोपें, 292 रॉकेट तोपें तथा 8600 बख्तरबंद वाहन शमिल हैं। पूरी दुनिया आज भारतीय सेना का लोहा मानती है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि भारतीय थलसेना हर परिस्थिति में चीनी सेना से बेहतर और अनुभवी है, जिसके पास युद्ध का बड़ा अनुभव है, जो कि विश्व में शायद ही किसी अन्य देश के पास हो। भले ही चीन के पास भारत से ज्यादा बड़ी सेना और सैन्य साजो-सामान है लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में दुनिया में किसी के लिए भी इस तथ्य को नजरअंदाज करना संभव नहीं हो सकता कि भारत की सेना को अब धरती पर दुनिया की सबसे खतरनाक सेना माना जाता है और सेना के विभिन्न अंगों के पास ऐसे-ऐसे खतरनाक हथियार हैं, जो चीनी सेना के पास भी नहीं हैं। धरती पर लड़ी जाने वाली लड़ाईयों के लिए भारतीय सेना की गिनती दुनिया की सर्वश्रेष्ठ सेनाओं में होती है और कहा जाता है कि अगर किसी सेना में अंग्रेज अधिकारी, अमेरिकी हथियार और भारतीय सैनिक हों तो उस सेना को युद्ध के मैदान में हराना असंभव होगा।

 

जापान के एक आकलन के मुताबिक भारतीय थलसेना चीन के मुकाबले ज्यादा मजबूत है। इस रिपोर्ट के अनुसार हिन्द महासागर के मध्य में होने के कारण भारत की रणनीतिक स्थिति बेहद महत्वपूर्ण है और दक्षिण एशिया में अब भारत का काफी प्रभाव है। अमेरिकी न्यूज वेबसाइट सीएनएन की एक रिपोर्ट में भी दावा किया गया है कि भारत की ताकत पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा बढ़ गई है और युद्ध की स्थिति में भारत का पलड़ा भारी रह सकता है। बोस्टन में हार्वर्ड केनेडी स्कूल के बेलफर सेंटर फॉर साइंस एंड इंटरनेशनल अफेयर्स तथा वाशिंगटन के एक अमेरिकी सुरक्षा केन्द्र के अध्ययन में कहा जा चुका है कि भारतीय सेना उच्च ऊंचाई वाले इलाकों में लड़ाई के मामले में माहिर है और चीनी सेना इसके आसपास भी नहीं फटकती।

 

-योगेश कुमार गोयल

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)

जलपाईगुड़ी के नजदीक रेल बेपटरी हो गई। बीकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस की कई बोगियां एक साथ पटरी से उतर गईं। कइयों के हताहत होने की खबर है। घायलों का आंकड़ा तो अनगिनत सामने आया है। ट्रेन बीकानेर से चली थी जिसे गुवाहाटी पहुंचना था, लेकिन बीच रास्ते में ही हादसे का शिकार हो गई।

 

समूचे हिंदुस्तान में एक अंतराल के बाद होते दर्दनाक रेल हादसों ने हमारे पुराने रेल तंत्र में रिफॉर्म करने की जरूरत को और महसूस करा दिया है। रेल की पटरियों, पुराने सिस्टम के डिब्बे और इंजन आदि को बदलने की जरूरत है। बिना देर किए विद्युतिकरण और आधुनिकीकरण की ओर मुड़ना होगा। इस दिशा में कुछ वर्ष पूर्व एक समानांतर बदलाव रूपी प्रयोग की आहट सुनाई भी दी थी। केंद्र सरकार ने रेल बजट का आम बजट में विलय किया था। मकसद था भारतीय रेल नेटवर्क को मजबूत करना और उसे आधुनिक रूपी जामा पहनाना। पर, उससे परिणाम कोई खास नहीं निकला। कमोबेश रेलवे की स्थिति पहले की जैसी बनी हुई है। हादसे रुके नहीं, बल्कि लगातार होते जा रहे हैं। गुरुवार शाम एक और बड़ा रेल हादसा हो गया। 

पश्चिम बंगाल में जलपाईगुड़ी के नजदीक रेल बेपटरी हो गई। बीकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस की कई बोगियां एक साथ पटरी से उतर गईं। कइयों के हताहत होने की खबर है। घायलों का आंकड़ा तो अनगिनत सामने आया है। ट्रेन बीकानेर से चली थी जिसे गुवाहाटी पहुंचना था, लेकिन बीच रास्ते में ही हादसे का शिकार हो गई। हादसे के शुरुआती कारण वही पुराने बताए गए हैं कि मौसम खराब था, पटरी खराब थी, चालक समझ नहीं पाया, वगैरा-वगैरा। लेकिन कायदे से देखें तो ये कारण ना बुनियादी हैं और ना ही मौलिक। मूल कारण तो सबके सामने है, कराहता पुराना रेल सिस्टम? इस घटना को भी बेशक पुरानी घटनाओं की तरह मृतकों के परिजनों को मुआवजे देकर शांत कर दिया जाएगा। लेकिन इससे सरकारी खामियां नहीं छिप पाएंगी।

 

हादसे में हताहत होने वालों की चीखें लगातार खोखले रेल तंत्र की कमियों को उजागर कर रही हैं। चीखों की तस्वीरें सीधे हमारे सरकारी तंत्र को कटघरे में खड़ा करती हैं। इसमें हम सीधे हुकूमतों को भी दोषी नहीं ठहरा सकते, क्योंकि काम तो रेल अधिकारियों को ही करना होता है। हादसों के वक्त उनकी घोर लापरवाही कई तरह के सवाल खड़ा करती हैं। पटरियों का रखरखाव भी वह अच्छे से नहीं करवाते। सर्दी के वक्त बेलदार पटरियों से नदारद रहते हैं। जबकि, नियमानुसार प्रत्येक रेल के गुजरने के बाद पटरी का मुआयना करना होता है। लेकिन ऐसा किया नहीं जाता। बीकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस पांच राज्यों, चौंतीस रेल स्टेशनों से गुजर कर अपने गंतव्य को पहुंचती है। वह रूट व्यस्त माना जाता है। पटरी में दरार की भी बात कही जा रही है। अगर हादसे का कारण खराब पटरियां होंगी तो अधिकारियों की ही प्रथम दृष्टया लापरवाही कही जाएगी।

  

हिंदुस्तान का रेल नेटवर्क आम जनता की जीवनदायिनी मानी गई है, जिसमें रोजाना करोड़ों यात्री सफर करते हैं। हमारे यहां कितना भी हवाई मार्ग दुरुस्त हो जाए, या कितने भी निजी वाहन देश में बढ़ जाएं, पर रेल की अहमियत कभी कम नहीं होगी। क्योंकि वह प्रत्येक नागरिक के जीवन से वास्ता रखती है और रखती रहेगी। लेकिन रेल बजट के खात्मे के बाद ऐसा प्रतीत होता कि जैसे रेलवे विभाग बेसहारा हो गया है। रेलवे की दशा को दुरुस्त करने के लिए अलग बजट की फिर से जरूरत महसूस होने लगी है। हम देश में बुलेट ट्रेन चलाने की बात कर रहे हैं, पर मौजूदा रेल नेटवर्क की अव्यवस्थाओं के चलते पूरा महकमा हांफ रहा है। उस पर ध्यान देने की सख्त आवश्यकता है। बीकानेर-गुवाहाटी एक्सप्रेस का हादसे का शिकार होना इसी बात का परिचायक है कि रेल तंत्र पर हम उतना ध्यान नहीं दे पा रहे।

  

रेल हादसों का हमारे पास पुराना इतिहास है। साल दर साल हादसे होते हैं। 13 फरवरी 2015 को बेंगलुरु से एर्नाकुलम जाने वाली एक्सप्रेस ट्रेन की आठ बोगियां होसुर के समीप पटरी से उतर थीं जिसमें कई लोगों की मौत हुई थी। 25 मई 2015 को राउरकेला में जम्मू-तवी एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई थी। 26 मई 2014 को यूपी के संत कबीर नगर में गोरखधाम एक्सप्रेस एक मालगाड़ी से टकराई थी। 4 मई 2014 को महाराष्ट्र के रायगढ़ में कोंकण रूट पर एक सवारी गाड़ी का इंजन और छह डिब्बे पटरी से उतरे थे। वहीं, 17 फरवरी 2014 को नासिक के घोटी में मंगला एक्सप्रेस के 10 डिब्बे पटरी से उतरे थे। 28 दिसंबर 2013 में आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में बेंगलुरु में नांदेड एक्सप्रेस के एक एसी कोच में आग लगने से 26 लोगों की मौत हुई थी। 19 अगस्त 2013 को बिहार के खगड़िया में कावड़ियां लोग पटरियों के रास्ते गुजर रहे थे तभी राज्यरानी एक्सप्रेस ने इन्हें कुचल दिया था उस हादसे में 37 लोग मारे गए थे। ऐसे कई अनन्त हादसे हैं जो गिनाए जा सकते हैं। सवाल उठता है कि हमारा रेल तंत्र सबक क्यों नहीं लेता। मौजूदा रेल हादसे का जिम्मेदार किसे माना जाए सरकार को या प्रशासन को? लेकिन मरने वाले परिजनों की चीखें सिस्टम को जरूर ललकार रही हैं। हादसे में किसी ने अपना भाई खोया, किसी ने अपना पति, तो किसी ने अपना दोस्त? उन चीखों का जवाब शायद ही कोई दे पाए। हताहत हुए लोगों के जख्मों पर कौन मरहम लगाएगा?

हादसे में मारे गए यात्रियों के परिजनों को मुआवजा देने की घोषणा हुई है। पर, मुआवजे का यह मरहम हादसों को रोकने का शायद विकल्प नहीं हो सकता? ऐसे हादसों की भरपाई के लिए मुआवजों का खेल खेल कर सरकार और प्रशासन अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। लेकिन असल सच्चाई पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। सवाल यह है कि हादसों को रोकने के मुकम्मल इंतजाम क्यों नहीं किए जाते? पिछले कुछ दशकों में इस तरह के अनगिनत हादसे हुए। हादसों के बाद मुआवजा देकर शांत कर दिया जाता है। इस रेल हादसे में भी यही होगा। मरने वालों को मुआवजा देकर जिंदगी फिर उसी मोड़ पर चलने के लिए छोड़ दी जाएगी। फिर नए हादसे का हम इंतजार करेंगे। रेल हादसे में जो यात्री जान गंवाते हैं उनके परिजनों का दुख हम महसूस कर सकते हैं पर दर्द का अंदाजा नहीं लगा सकते। हादसे का जख्म उनको ताउम्र झकझोरता है। रेल तंत्र हम भारतीयों का बहुत बड़ा आवागमन का साधन है। हर आम लोगों की जीवन का हिस्सा है। फिर इसके प्रति इतनी घोर लापरवाही क्यों?

 

-डॉ. रमेश ठाकुर

खैर, राजनीति में अक्सर यह देखा जाता है कि नेता ऐसा कुछ बोल जाता है जो उसके दिल में नहीं होता है, लेकिन विरोधी खेमा इसे उक्त नेता के दिल की बात से जोड़ देता है, ऐसा ही अखिलेश यादव के साथ हो रहा है। बीजेपी उनके खिलाफ हमलावर है।

 

हिन्दुत्व के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी और भाजपा में टकराव बढ़ता जा रहा है। अभी योगी के 80 बनाम 20 की लड़ाई का मामला ठंडा भी नहीं हुआ था कि सपा प्रमुख ने धर्म भी कभी-कभी अंधविश्वास होता है, वाला बयान देकर एक बार फिर भाजपा को हमलावर होने का मौका प्रदान कर दिया है। सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की ओर से एक इंटरव्यू में आए उक्त विचार को भारतीय जनता पार्टी ने चुनावी मुद्दा बनाना शुरू कर दिया है। भाजपा ने कहा है कि अखिलेश यादव ने लोगों की भावनाएं आहत की हैं और उन्हें इसके लिए माफी मांगनी चाहिए। दरअसल, विवाद की शुरूआत तब हुई जब सपा अध्यक्ष से एक टीवी इंटरव्यू में एंकर ने पूछा कि अपने कार्यकाल में वह कभी नोएडा क्यों नहीं गए। अखिलेश ने पहले तो नोएडा में किए गए काम गिनाकर सीधा जवाब देने से बचने की कोशिश की, लेकिन जब दोबारा उनसे यही सवाल पूछा गया तो हंसते हुए उन्होंने नोएडा वाले डर का सच स्वीकार कर लिया। उन्होंने कहा कि नोएडा इसलिए नहीं गया क्योंकि माना जाता है कि जो चला जाता है वह मुख्यमंत्री नहीं आ पाता है। हमारे बाबा मुख्यमंत्री (योगी आदित्यनाथ) हो आए अब दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे। एंकर ने जब इसे अंधविश्वास कहा तो अखिलेश बोले कि हां, तो धर्म भी कभी-कभी अंधविश्वास होता है।

सपा प्रमुख अखिलेश यादव की हिंदू विरोधी छवि गढ़ने में जुटी भाजपा ने इसे लपकने में देर नहीं की। बीजेपी के ट्विटर हैंडल से इंटरव्यू के इस हिस्से को ट्वीट करते हुए लिखा, ‘चुनावी हिंदू को धर्म अंध विश्वास ही लगेगा’ वहीं, यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी अखिलेश यादव के इस बयान की आलोचना करते हुए कहा कि उन्हें लोगों से माफी मांगनी चाहिए। मौर्य ने कहा कि धर्म को अंधविश्वास बताने से लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं। मैं चाहता हूं कि वे माफी मांगें।

   

खैर, राजनीति में अक्सर यह देखा जाता है कि नेता ऐसा कुछ बोल जाता है जो उसके दिल में नहीं होता है, लेकिन विरोधी खेमा इसे उक्त नेता के दिल की बात से जोड़ देता है, ऐसा ही अखिलेश यादव के साथ हो रहा है। बीजेपी उनके खिलाफ हमलावर है। राजनीति के जानकारों को पता है कि नेता जो बोलता है, वह तो उसकी जुबान पर जरूर होता है, लेकिन वह जो नहीं बोलता है, वह उसके दिल में होता है। दिल की बात जुबां पर ऐसे घुमा-फिरा कर लाई जाती है कि ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे।’ जनता और विपक्ष समझ भी जाए और कहीं कोई कानूनी लफड़ा भी न हो। खासकर चुनावी मौसम में इस बात का ध्यान कुछ ज्यादा ही रखा जाता है, वर्ना चुनाव आयोग आचार संहिता का हंटर चला सकता है। कौन-सी बात कहां कहनी है और कहां चुप्पी साध लेना है, यह भी नेताओं से बेहतर कोई और नहीं जानता है। ऐसे ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के एक बयान (80 बनाम 20) ने इस समय सियासी बवंडर खड़ा कर रखा है। पूरी सियासत योगी के बयान के बीच उलझ कर रह गई है। योगी आदित्यनाथ का कहना था कि यूपी में इस बार की लड़ाई 80 बनाम 20 की है। सब जानते और समझते हैं कि योगी का इशारा 80 फीसदी हिन्दू और 20 फीसदी मुसलमानों की तरफ था, लेकिन जब उनसे 80 बनाम 20 का मतलब समझाने की कोशिश की जाती है तो वह कहते हैं कि 20 फीसदी में वह लोग शामिल हैं जो अयोध्या में भगवान राम के मंदिर निर्माण का और वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर में बने काशी कॉरिडोर का विरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि जिनको मथुरा से परेशानी है, जो आतंकवादियों को छोड़ते हैं और कारसेवकों पर गोली चलाते हैं, जिन्हें राष्ट्रवाद से नफरत है वह 20 प्रतिशत में आते हैं। योगी इशारों में समाजवादी पार्टी को घेरते हैं तो इसीलिये उनके (योगी के) बयान पर सबसे ज्यादा समाजवादी पार्टी के नेता भड़कते हैं।

 

लगातार समाजवादी पर हमलावर मुख्यमंत्री यहीं नहीं रुके, उन्होंने खुल कर कहा कि हिंदू विरोधी तत्व उन पर कभी भरोसा नहीं करते, भले ही वो कुछ भी कर दें। योगी आदित्यनाथ ने आगे कहा, 'हिंदू विरोधी तत्व पहले भी मुझ पर भरोसा नहीं करते थे, और आगे भी नहीं करेंगे।' इतना ही नहीं सीएम योगी ने कहा कि अगर मैं अपनी गर्दन काटकर ऐसे लोगों के सामने प्लेट में रख दूं तो भी इन्हें मुझ पर यकीन नहीं होगा। योगी एक न्यूज चैनल को इंटरव्यू दे रहे थे। एंकर ने जब उनसे सवाल किया कि अयोध्या में भगवान राम के मंदिर के साथ थोड़ी दूरी पर मस्जिद भी बन रही है, वहां वह जाएंगे तो सीएम ने बेहद साफगोई से जवाब दिया कि मुख्यमंत्री की हैसियत से मुझे किसी धर्म से कोई परहेज नहीं है। योगी के बयान के बाद राजनीतिक दलों में जुबानी जंग तेज हो गई है। समाजवादी पार्टी ने समाजवादी और अंबेडकरवादी का योग 85 फीसदी बताते हुए बीजेपी पर पलटवार किया। सपा प्रवक्ता सुनील यादव ने कहा, ''योगी जी जो कह रहे हैं 20 और 80 की लड़ाई, उनका गणित अभी थोड़ी गड़बड़ है, लड़ाई 15 और 85 की है, जब समाजवादी और अंबेडकरवादी मिल गए तो हो गए 85 फीसदी। 15 में भी हम वोट लेंगे, तो अब समझ लें वो अपना गणित।''

उधर, कांग्रेस ने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के बयान को साम्प्रदायिक करार दिया है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने एक पोस्ट टैग करते हुए ट्वीट किया। उन्होंने लिखा है कि माननीय केंद्रीय चुनाव आयोग, आपको और क्या प्रमाण चाहिए? जो भी धर्म के नाम पर वोट मांगता हो उसके खिलाफ साहस दिखा कर कार्रवाई करिए अन्यथा आपको इतिहास माफ नहीं करेगा। वहीं कांग्रेस प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत ने इस मसले पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा है कि यूपी के चुनाव सांप्रदायिक मुद्दों पर नहीं होंगे, 80-20 पर नहीं होंगे, 60-40 पर नहीं होंगे, यूपी के चुनाव बेरोजगारी पर होंगे, माताओं-बहनों के सम्मान पर होंगे, किसानों की फसल के उचित मूल्य पर होंगे।

 

खैर, बात आबादी के हिसाब से जनसंख्या के गणित की कि जाए तो उत्तर प्रदेश में हिंदू 79.73 फीसदी, मुस्लिम 19.26 फीसदी, ईसाई 0.18 फीसदी, सिख 0.32 प्रतिशत, बौद्ध 0.10 प्रतिशत, जैन 0.01 प्रतिशत और अन्य 0.40 प्रतिशत हैं। इसीलिए योगी के बयान को हिन्दू बनाम मुस्लिम करके देखा जा रहा है। दरअसल, भारतीय जनता पार्टी के लिए हिन्दुत्व की पिच पर बैटिंग करना काफी आसान है। बीजेपी लगातार कोशिश में रहती है कि हिन्दू वोटरों को जात-पात से बाहर निकाल कर हिन्दुत्व के बैनर तले एकजुट किया जा सके, ऐसा करने में बीजेपी पिछले तीन चुनावों में सफल भी हो चुकी है। 2014 और 2019 का लोकसभा और 2017 का विधानसभा चुनाव बीजेपी ने हिन्दुत्व के सहारे ही जीता था, इस बार भी उसका इसी पर दांव लगा है, जो सफल होते भी दिख रहा है।

 

-अजय कुमार

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