भारत रत्न की मांग पर उठा सियासी तूफान, सावरकर के साथ वीर जुड़ने की पूरी दास्तां Featured

विनायक दामोदर सावरकर एक क्रांतिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, लेखक, कवि, वक्ता, राजनेता और दार्शनिक। सावरकर के कई रुप हैं, कुछ सब लोगों को लुभाते हैं और कुछ लोगों को रास नहीं आते हैं। उनके जीवन को लेकर तमाम तरह के मिथक हैं।
विनायक दामोदर सावरकर, कुछ के लिए स्वतंत्र वीर सावरकर तो कुछ के लिए सिर्फ सावरकर। महाराष्ट्र में बीजेपी ने संकल्प पत्र जारी किया। किसानों को 12 घंटे बिजली और एक करो़ड़ रोजगार देने के वादों के बीच एक वादा भारत रत्न दिलाने का भी है। भारत रत्न की इस सूची में सावित्री बाई फुले का नाम भी शामिल है। लेकिन बवाल वीर सावरकर के नाम को लेकर हुआ। कांग्रेस नेता मनीष तिवारी ने महात्मा गांधी की हत्या के मुकदमे का जिक्र करते हुए कपूर आयोग का जिक्र किया। वहीं एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी ने ट्वीटर पर आठ प्वाइंट लिखते हुए सावरकर को अनमोल रत्न और अंग्रेजों का वफादार बताया है। बयान आ रहे हैं और बवाल मचा है और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बीच ही एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी को जोड़े जाने की कवायद के साथ ही पक्ष औऱ विपक्ष के तर्क।
 विनायक दामोदर सावरकर एक क्रांतिकारी, सामाजिक कार्यकर्ता, चिंतक, लेखक, कवि, वक्ता, राजनेता और दार्शनिक। सावरकर के कई रुप हैं, कुछ सब लोगों को लुभाते हैं और कुछ लोगों को रास नहीं आते हैं। उनके जीवन को लेकर तमाम तरह के मिथक हैं। कई भ्रांतियां हैं और कई ऐसी बातें भी जो कि शायद सही नहीं भी हैं। उनके विरोधी और उनके समर्थक पूरी तरह सही हों ये भी जरूरी नहीं है। लेकिन हर आदमी की कुछ विशेषताएं होते हैं और कुछ योगदान होते हैं। आज हम आपको बताएंगे उनके राजनीतिक दर्शन की और साथ ही क्या है उनके विचार और योगदान।

आधुनिक भारत के राजनीतिक विमर्श में जो नाम लगातार चर्चा में रहते हैं। विनायक दामोदर सावरकर उनमें से एक हैं। लोग उनके विचारों के जितने समर्थन में हैं उतने ही विरोध में भी हैं। लेकिन उनके अस्तित्व को आधुनिक विमर्श में नकारा नहीं जा सकता है। स्वतंत्रता आंदोलन धर्म सुधार, सामाजिक विषमताओं और दर्शन के क्षेत्र में उन्होंने काम किया है। उस पर आज के राजनीतिक हालात में चर्चा जरूरी है। सावरकर को लेकर उनके समर्थकों के साथ-साथ विरोधियों में भी कई भ्रांतियां है। उनके राजनीतिक दर्शन में उपयोगितावाद, तर्कवाद, सकारात्मकवाद के अलावा मानवतावाद, सार्वभौमिकता, व्यवहारिकता और यथार्थवाद जैसे बिंदु भी हैं, जिन पर चर्चा कम ही होती हैं।
 
दो बार मिली आजीवन कारावास की सजा
विनायक दामोदर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुआ। सावरकर महज नौ बरस के थे जब उनकी मां राधा बाई का निधन हो गया। इसके बाद बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का जिम्मा संभाला। 1901 में सावरकर ने नासिक के शिवाजी हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और उसी वर्ष उनकी शादी यमुनाबाई के साथ हुई। इस दौरान तमाम परेशानियों के बावजूद उन्होंने पढ़ाई आगे जारी रखने का फैसला किया। पुणे के कालेज से स्नातक की पढ़ाई करने के बाद वो वकालत करने लंदन चले गए। पढ़ाई के दौरान ही उनका झुकाव राजनीतिक गतिविधियों की तरफ हुआ। 1904 में सावरकर ने अभिनव भारत नाम का एक संगठन बनाया। 1905 में बंगाल विभाजन के विरोध में हुए आंदोलन में सक्रिय रहे और इस दौरान कई पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख भी छपे। रूसी क्रांति का उनके जीवन पर गहरा असर हुआ। लंदन में उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इंडिया हाउस की देख रेख किया करते थे। 1907 में इंडिया हाउस में आयोजित 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयंती कार्यक्रम में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। जुलाई 1909 को मदन लाल डिंगड़ा ने विलियम कर्जन वायली को गोली मार दी। इसके बाद सावरकर ने लंदन टाइम्स में एक लेख लिखा था। 13 मई 1910 को उन्हें गिरफ्तार किया गया। 24 दिसंबर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई। 31 जनवरी 1911 को सावरकर को दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। 7 अप्रैल 1911 को उन्हें काला पानी की सजा दी गई। सावरकर 4 जुलाई 1911 से 21 मई 1921 तक पोर्टब्लेयर जेल में रहे। अंडमान की जेल में रहते हुए पत्थर के टुकड़ों को कलम बना कर जिसने 6000 कविताएं दीवार पर लिखीं और उन्हें कंठस्थ किया। उसके बाद अंग्रेज शासकों ने उनकी याचिका पर विचार करते हुए उन्हें रिहा कर दिया। आजादी तक वो विभिन्न सामाजिक, राजनीतिक मंचों पर सक्रिय रहे। अंडमान से वापस आने के बाद सावरकर ने एक पुस्तक लिखी 'हिंदुत्व- हू इज हिंदू?' (Hindutva- Who is Hindu) जिसमें उन्होंने पहली बार हिंदुत्व को एक राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इस्तेमाल किया। आजादी के बाद उन्हें महात्मा गांधी की हत्या के बाद गिरफ्तार किया गया। इलके बाद 10 नवंबर को आयोजित प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के शताब्दी समारोह में वो मुख्य वक्ता रहे। 1959 में पुणे विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट की मानक उपाधि से सम्मानित किया। सितंबर 1965 में सावरकर को बीमारी ने घेर लिया। इसके बाद उन्होंने उपवास करने का फैसला किया। सावरकर ने 26 फरवरी 1966 को अपना शरीर त्याग दिया।
 
राष्ट्रवाद के समर्थन में अंग्रेजी हुकूमत का किया विरोध
विनायक दामोदर सावरकर न केवल क्रांतिकारी थे बल्कि प्रखर राष्ट्रवाद के समर्थक भी थे। भारतीय राष्ट्रवाद को देखने का सावरकर का अपना नजरिया था। सावरकर के मुताबिक सिर्फ जाति संबंध या पहचान ही राष्ट्रवाद को परिभाषित करने के लिए काफी नहीं है। सावरकर का मानना था कि किसी भी राष्ट्रवाद की पहचान के मुख्य रूप से तीन आधार होते हैं। जिनमें पहला भौगोलिक एकता, दूसरा जातीय गुण और तीसरी साझी संस्कृति है। सावरकर के अनुसार साझी संस्कृति ऐसी हो जो एक भाषा के जरिए सभी को जोड़कर रख सके। इसके लिए सावरकर ने संस्कृत या हिंदी को अपनाने की बात कही। हालांकि उनकी साझा संस्कृति के लिए एक भाषा अपनाने की बात से कई लोग असहमत भी होते हैं।

स्वदेशी का नारा देकर जलाई विदेशी वस्त्रों की होली
बचपन से ही राष्ट्रवादी विचारधारा के समर्थन विनायक दामोदर सावरकर ने 1904 में अभिनव भारत नाम से एक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। जिसका मकसद अंग्रेजों से भारत को आजाद कराना था और जब देश आजाद हो गया इसे भंग कर दिया गया। राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित सावरकर ने 1905 में बंगाल विभाजन के बाद स्वदेशी का नारा दिया और पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे में धर्म चक्र लगाने का सुझाव वीर सावरकर ने ही दिया था जिसे तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने मान लिया।
 
अटल ने भी की थी भारत रत्न की सिफारिश
वर्ष 2000 में वाजपेयी सरकार ने तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के पास सावरकर को भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' देने का प्रस्ताव भेजा था। लेकिन उन्होंने उसे स्वीकार नहीं किया था।
 
नाम में कैसे जुड़ा 'वीर'
अत्रे ने पुणे में अपने बालमोहन थिएटर के कार्यक्रम के तहत सावरकर के लिए एक स्वागत कार्यक्रम आयोजित किया। इस कार्यक्रम को लेकर कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने सावरकर के खिलाफ पर्चे बांटे और धमकी दी कि वे सावरकर को काले झंडे दिखाएंगे। इस विरोध के बावजूद हज़ारों लोग जुटे और सावरकर का स्वागत कार्यक्रम संपन्न हुआ, जिसमें अत्रे ने वो टाइटल दिया, जो आज तक चर्चित है। सावरकर के विरोध में कांग्रेसी कार्यकर्ता कार्यक्रम के बाहर हंगामा कर रहे थे और अत्रे ने कार्यक्रम में अपने भाषण में सावरकर को निडर करार देते हुए कह दिया कि काले झंडों से वो आदमी नहीं डरेगा, जो काला पानी की सज़ा तक से नहीं डरा। इसके साथ ही, अत्रे ने सावरकर को उपाधि दी 'स्वातंत्र्यवीर'। यही उपाधि बाद में सिर्फ 'वीर' टाइटल हो गई और सावरकर के नाम के साथ जुड़ गई।

अंग्रेजों से माफी मांगने के पीछे का सच
सावरकर के अंग्रजों से माफी मांगने को लेकर कई तरह की बातें हमेशा से उठती रही हैं। लेकिन सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत को जो पत्र लिखे थे वो कोई दया याचिका नहीं थी ये सिर्फ एक याचिका थी। जिस तरह हर राजबंदी को एक वकील करके अपना केस फाइल करनी की छूट होती है उसी तरह सारे राजबंदियों को याचिका देने की छूट दी गई थी। वे एक वकील थे उन्हें पता था कि जेल से छूटने के लिए कानून का किस तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। उनको 50 साल का आजीवन कारावास सुना दिया गया था तब वो 28 साल के थे। अगर ये जिंदा वहां से लौटते तो 78 साल के हो जाते। इसके बाद क्या होता उनका? देश की आजादी की लड़ाई में अपना योगदान दे पाते? उनकी मंशा थी कि किसी तरह जेल से छूटकर देश के लिए कुछ किया जाए। सावरकर ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, "अगर मैंने जेल में हड़ताल की होती तो मुझसे भारत पत्र भेजने का अधिकार छीन लिया जाता।"
 
- अभिनय आकाश
 

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